SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [११६ मंत्र ५] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः तान क्रमेण दर्शयितुमाह गाढबन्धत्वमोजः । ३, १, ५। वन्धस्य गाढत्वं यत् तदोनः । यथा 'रीति' कहा है । इसलिए वामन के मत में पद-रचना या रीतियो को गुणात्मक माना गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि 'गुण' और 'रीति' अलग-अलग नही है। इसीलिए मानन्दवर्धनाचार्य ने वामन के मत को 'गुण' तथा 'सङ्घटना' का 'अभेदवादी' मत कहा है। इस 'अभेदवादी' पक्ष के विपरीत दूसरा 'भेदवाटी' पक्ष है जो 'सङ्घटना' तथा गुण दोनो को अलग-अलग भिन्न-भिन्न मानता है । इस 'भेदवादी' पक्ष में गुणो के 'सङ्घटना' के साथ सम्बन्ध के विषय में दो प्रकार के मत पाए जाते है । एक मत में 'गुण' 'सङ्कटना' के आश्रित रहते है। और दूसरे मत में 'सङ्घटना' गुणो के प्राधित रहती है । इन दोनो मतो को प्रानन्दवर्धन ने 'सङ्घटनाश्रया गुणा' और 'गुणाश्रया वा सङ्घटना' इस रूप में प्रस्तुत किया है। इनमें से 'सङ्घटनाश्रया गुणा' अर्थात् गुण, 'सङ्घटना' के आश्रित रहते है । यह पक्ष 'भट्टोद्भट' प्रादि का है । उन्होने गुणो को सङ्घटना का धर्म माना है । धर्म सदा धर्मी के आश्रित रहता है । इसलिए 'गुण', 'सङ्घटना' के माश्रित रहते है। अर्थात् 'गुरा' आधेय और 'सङ्घटना' आधार रूप है । इस प्रकार गुण और सङ्घटना का भेद है। तीसरा पक्ष 'गुणाश्रया सङ्घटना' है अर्थात् सङ्घटना गुणो के माश्रित रहती है । यह मानन्दवर्धनाचार्य का अभिमत पक्ष है । इस प्रकार तीन प्रकार के विकल्प ध्वन्यालोककार ने दिखलाए है । ध्वन्यालोककार स्वयं 'रीति सम्भदाय के मानने वाले नहीं है । वह 'रीति' को नही अपितु ध्वनि को काव्य का प्रात्मा मानते है और 'ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक है । फिर भी उन्होने 'सद्धटना' नाम से रीतियो का निर्देश कर गुणो के साथ उनका सम्बन्ध दिखाने का प्रयत्न किया है । और तीनो का समन्वय करने का भी यल किया है ॥४॥ क्रम से उन [ वसो गुणो के लक्षणादि ] को दिखाने के लिए कहते है। रचना की गाढ़ता [ गाढ़ बन्धत्व ] पोज [गुण कहलाता है। वन्ध [अर्थात् रचना] का जो गाढत्व है वह प्रोच [गुण कहलाता] है। गाढत्व का अभिप्राय अवयवो अथवा अक्षरविन्यास का परस्पर संश्लिमत्व
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy