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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
पूर्वे नित्याः । ३, १, ३ ।
पूर्वे गुणा नित्याः । तैर्विना काव्यशोभानुपपत्तेः ॥ ३ ॥ एवं गुणालङ्काराणां भेदं दर्शयित्वा शब्दगुणनिरूपणार्थमाहप्रोजः- प्रसाद-श्लेष-समता- समाधि - माधुर्य-सौकुमार्यउदारता-ऽर्थव्यक्ति-कान्तयो बन्धगुणाः । ३, १, ४, बन्धः पदरचना, तस्य गुणा बन्धगुणाः श्रोजःप्रभृतयः ॥ ४ ॥
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[ सूत्र ३-४
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[ उन गुण तथा अलङ्कारों में से ] प्रथम [ अर्थात् गुण ] नित्य है । पूर्व [ अर्थात् ] गुण नित्य [ काव्य में अपरिहार्य ] है । उन [ गुणों ] के बिना [ काव्य की ] शोभा अनुपपन्न होने से ॥ ३ ॥
इस प्रकार गुण तथा अलङ्कारों के भेद का निरूपण करके शब्द - गुणों के निरूपण करने के लिए [ सबसे पहिले उनका 'उद्देश' अर्थात् नाममात्रेण कथन करने के लिए अगला सूत्र ] कहते है
१. भोज, २. प्रसाद, ३. श्लेष, ४, समता, ५. समाधि, ६. माधुर्य, ७. सौकुमार्य, ८. उदारता, ६. श्रर्थव्यक्ति, और १०. कान्तिं [ नामक यह १० ] ara [ अर्थात् रचना ] के गुण है ।
बन्ध भ्रर्थात् पद-रचना उसके गुण बन्धगुण, भोज, प्रसाद आदि [ १० प्रकार के बन्धगुण ] होते है ।
यहा प्रोज, प्रसाद, प्रादि को 'बन्ध' का गुण कहा है। 'बन्ध' का अर्थ पद-रचना है । अर्थात् भोज प्रसाद प्रादि पद-रचना के गुरण है | इस 'पदरचना' के लिए 'सङ्घटना' शब्द का प्रयोग भी, साहित्यग्रन्थो मे हुआ है । ध्वन्यालोककार ने इस अर्थ में मुख्य रूप से 'सङ्घटना' शब्द का ही प्रयोग किया है । उन्होने 'सङ्घटना' तथा 'गुणों' के सम्बन्ध का विवेचन बहुत विस्तार के साथ किया है । इनके सम्बन्ध का निरूपण करते हुए भी उन्होने 'अभेदवादी' तथा 'भेदवादी' दो पक्ष दिखलाए है । 'अभेदवादी' पक्ष में उन्होने वामन के मत को रखा है । वामन पद- रचना को 'बन्ध' कहते है । श्रीर विशेष प्रकार की पद-रचना के लिए 'रीति' शब्द का प्रयोग करते है । प्रथम अधिकरण में 'विशिष्टपद - रचना रीति' यह रीति का लक्षण कर चुके है । 'पद-रचना की वह विशिष्टता क्या है इसका प्रतिपादन करते हुए अगले ही सूत्र में 'विशेषो गुणात्मा' लिख कर गुणरूपता - गुणात्मकता को ही पद-रचना का वैशिष्ट्य या
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