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________________ सूत्र २] तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः युवतेरिव रूपमङ्ग काव्यं, स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव । विहितप्रणयं निरन्तराभिः, सदलङ्कारविकल्पकल्पनाभिः || यदि भवति वचश्च्युत गुणेभ्यो, वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः । अपि जनदयितानि दुर्भगत्वं, नियतमलङ्करणानि संश्रयन्ते ॥ [ ११७ [शुद्ध अर्थात् अलङ्कारो से श्रमिश्रित गुण प्रोजः प्रसाद आदि जिस में हो वह ] शुद्धगुण वाला वह काव्य भी युवति के [ अलङ्कारविहीन शुद्ध ] रूप के समान [ रसिक जनो को ] अत्यन्त रुचिकर होता है । और प्रत्यधिक [ निरन्तराभिः ] अलङ्कार रचनाश्रो से विभूषित रूप भी अत्यन्त प्रह्लाददायक होता है । [ युवति में सौन्दर्य रूप गुए होने पर अलङ्कार हो या न हो दोनो अवस्थानो में रसिको को वह रूप रुचिकर होता ही है ] | [ परन्तु ] यदि स्त्री के [ यौवन वन्ध्य जिसमें यौवन भी लावण्य को उत्पन्न न कर सकने के कारण व्यर्थ हो ऐसे ] लावण्यशून्य शरीर के समान etou - वाणी [ वचः ] गुणो [ प्रोज प्रसाद आदि ] से शून्य हो तो निश्चय ही [ उसके धारण किए हुए ] लोकप्रिय [ जनदयितानि ] आभूषण भी भद्दे मालूम होने लगते है [ दुर्भगत्व संश्रयन्ते ] । इन श्लोको का अभिप्राय यह हुआ कि गुरणो के होने पर अलङ्कारो के विना भी काव्य की शोभा हो सकती है और गुरणो के प्रभाव में केवल अलङ्कारो से काव्य की शोभा नही होती । इसलिए अन्वय तथा व्यतिरेक से गुण ही काव्य- शोभा के उत्पादक है और अलङ्कार उस शोभा की वृद्धि के हेतु होते है ॥ २ ॥ गुण और अलङ्कारो का मुख्य भेद ग्रन्थकार ने बता दिया, परन्तु वामन के मत में गुरण तथा श्रलङ्कारो का इसके अतिरिक्त एक भेद और है । वह यह है कि गुण काव्य के नित्य अर्थात् अपरिहार्यं धर्म है और अलङ्कार नित्य या अपरिहार्यं धर्म नही है । अर्थात् गुणो के विना काव्य की शोभा नही हो सकती है । परन्तु अलङ्कारो के बिना काव्य की शोभा हो सकती है । इसी बात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कहते है ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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