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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २
तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । ३, १, २।। तस्याः काव्यशोभाया अतिशयस्तदतिशयः, तस्य हेतवः । तु शब्दो व्यतिरेके । अलङ्काराश्च यमकोपमादयः । अत्र श्लोको
नियम से नही अपितु कभी-कभी उपकृत करते है वे हारादि के समान अलङ्कार होते है । हार आदि अलङ्कारो की प्रायः तीन प्रकार की स्थिति देखी जाती है।
१. अलङ्कार्य स्त्री आदि में वास्तविक सौन्दर्य होने पर हारादि अलङ्कार उसके उत्कर्षाधायक होते है । २. सौन्दर्य न होने पर वह दृष्टिवैचित्र्य मात्र के हेतु होते है । इसी प्रकार काव्य में रस होने पर उपमादि अथवा अनुप्रासादि अलङ्कार उसके उत्कर्षांधायक होते है । जहा रस नही होता वहा उक्तिवैचित्र्यमात्र रूप से प्रतीत होते है । और रस के विद्यमान होने पर भी कभी उसके उत्कर्षांधायक नही भी होते है । जैसे अत्यन्त भनिन्ध सौन्दर्यशालिनी युवति को धारण कराए हुए ग्रामीण अलङ्कार उसके सौन्दर्य के अभिवर्धक नहीं होते।
इसलि काव्यप्रकाशकार के मत मै गुण तथा अलङ्कारो के भेद का मुख्य प्राधार यह है कि 'गुण रस के नियत धर्म है' और 'अलङ्कार शब्द तथा अर्थ के अनियत धर्म है।
प्रकृत 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति के निर्माता वामन भी गुण तथा अलङ्कारो का भेद मानते है। परन्तु उनके मत में उस भेद का प्राधार मानन्दवर्धनाचार्य तथा मम्मटाचार्य से भिन्न कुछ और ही है।
वामन का मत यह है कि काव्यशोभा के उत्पादक धर्मों का नाम 'गुण' है और उस शोभा के प्रतिशय-हेतुप्रो को 'अलङ्कार' कहते है । इसी प्राशय से 'काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणा ।' यह गुणो का सामान्य लक्षण करने के बाद अलड्वारो का उनसे भेद दिखाने वाला लक्षण 'तदतिशयहेतवस्त्वलकाराः । अगले सूत्र में करते है
उस [ काव्यशोभा ] के अतिशय के हेतु अलङ्कार होते है ।
उस काव्यशोभा का अतिशय तदतिशय [ का अर्थ ] हुमा । उसके हेतु [अलङ्कार होते है ] तु शब्द [ गुणो से अलङ्कारो का] भेद [प्रदर्शन में [प्रयुक्त हुआ ] है । यमक और उपमा प्रादि [शब्द तथा अर्थ के ] अलङ्कार है। [ गुण और अलङ्कारो का जो भेद हमने प्रतिपादित किया है इसके [समर्थन के ] विषय में [ निम्न लिखित ] दो श्लोक [ भी ] है