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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती । सूत्र १५ २. लीलाचलच्छवणकुण्डलमापतन्ति ।
३. आययुभृङ्गमुखराः शिरःशेखरशालिनः ॥ १४॥ मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्द. शुद्धे. । २, २, १५ । मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्दो हारशब्देनैव गतार्थः प्रयुज्यते, शुद्धः प्रतिपत्त्यर्थमिति सम्बन्धः। शुद्धानामन्यरत्नैरमिश्रितानां हारो मुक्ताहारः। यथा
झूला झूलने के समय सुन्दरियो के फानो के आभूषण हिल रहे है।
[ इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण देते है ] लीला से हिलते हुए श्रवएकुण्डल पर [ भ्रमर प्रादि ] गिरते है । [अथवा लीला से हिलते कुण्डलों वाले या वाली होकर गिरते है या गिरती है ] ।
यह उदाहरण श्रवणकुण्डल पद मे कुण्डल की श्रवण-सन्निधि कान में पहिने होने की सूचना के लिए प्रयुक्त श्रवण पद के प्रयोग समर्थन के लिए दिया है । परन्तु यहा 'लीला-चलत्' पद से ही उनका कान मे पहिना होना प्रतीत हो सकता है । इसलिए यह उदाहरण अधिक सुन्दर नहीं रहा उसकी अपेक्षा निम्न उदाहरण अच्छा रहेगा
अस्याः कर्णावतसेन जित सर्व विभूषणम् ।
तथैव शोभतेऽत्यन्तमस्याः श्रवणकुण्डलम् ॥ इसके पूर्व धनुर्ध्या आदि सूत्र मे ही कर्णावतंसादि पदों का भी एकत्र ही निर्देश किया जा सकता था उस दशा मे अलग सूत्र बनाने की आवश्यकता न होती । परन्तु प्रयोजन के भेद को दिखाने के लिए इस सूत्र और इसके अगले चार सूत्रों की रचना अलग की गई है। तीसरा उदाहरण देते हैं
भृङ्गो के गुञ्जन से युक्त [ मुखरित ] शिर-मौर [शेखर ] वाले [लोग ] पाए।
[यहा शेखर के साथ शिरः पद का प्रयोग मौर [शेखर ] को शिर पर स्थिति के वोपन के लिए है ] ॥१४॥
मुक्ताहार [ इस प्रयोग ] में मुक्ता पद [का प्रयोग] शुद्धि [ के बोधन के प्रयोजन ] से हुआ है।
'मुक्ताहार' इस शब्द में मुक्ता शब्द हार शब्द से ही गतार्थ होकर [ भी अलग] प्रयुक्त होता है। [क्योकि मुफ्ता के बने हुए हार को ही हार