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सूत्र १४ ] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः १०१ आरूढः प्रतिपत्त्यै । आरोहणस्य प्रतिपत्त्यर्थम् । न हि धनुःश्रुतिमन्तरेण धनुष्यारूढा ज्या धनु]ति शक्यं प्रतिपत्तुम् । यथा
धनुर्व्याकिणचिन्हेन दोष्णा विस्फुरितं तव । इति ॥ १३ ॥ कर्णावतंसश्रवणकुण्डलशिर शेखरेषु कर्णादिनिर्देश. सन्निधेः । २, २, १४ ।
__ कर्णावतंसादिशब्देषु कर्णादीनामवतंसादिपदैरुक्तार्थानामपि निर्देशः सन्निधे. प्रतिपत्त्यर्थमिति सम्बन्ध. । न हि कर्णादिशब्दनिर्देशमन्तरेण कर्णादिसन्निहितानामवतंसादीनां शक्या प्रतिपत्तिः कर्तुमिति । यथा
१.दोलाविलासेषु विलासिनीनां
करणावतंसा. कलयन्ति कम्पम् ।। हो जाने पर भी] धनुः सुद [का प्रयोग क्यिा गया है। ] पारूढ़ता के बोष के लिए [प्रयुक्त किया गया है । 'मारूढः प्रतिपत्त्यै' का अर्थ आरूढ़ता के बोध के लिए है । धनुःपद के बिना, धनुष पर चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा धनुष की प्रत्यञ्चा है [अथवा उतरी हुई ] यह नहीं समझा जा सकता है। [धनुर्ध्या शब्द के प्रयोग का उदाहरण ] जैसे
धनुष की प्रत्यञ्चा को चोट से चिन्हित तुम्हारा बाहु फड़क रहा है।
[यहां धनुर्ध्या पद के प्रयोग से चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा का ही ग्रहण होता है अन्यथा प्रत्यञ्चा के बन्धन प्रादि से भी चिन्ह हो सकता है ] ॥ १३ ॥
[इसी प्रकार कर्णावतंस, श्रवणकुण्डल, शिरशेखर आदि [प्रयोगो] में कर्ण [श्रवण, शिर ] आदि [ पदो] का निर्देश सामीप्य [बोधन के कारण ]
कर्णावतंस प्रादि शब्दो में कर्णादि के अवतंस, प्रादि पदो से गतार्थ हो जाने पर भी [अलग] निर्देश सन्निधि [ सामीप्य ] के बोध के लिए [किया जाता है, यह [ सूत्र के पदो का सम्बन्ध हुमा । कर्णादि पदो के प्रयोग के बिना कर्ण आदि में सन्निहित [पहिने हुए ] अवतंस प्रादि का ज्ञान नहीं किया जा सकता है। [क्योकि कान के प्राभूषण कर्णफूल अलग भी रखे हुए हो सकते है । कर्णावतंस पद के प्रयोग से कानो में पहिने हुए रूप में ही उनका बोध होता है, अलग रखे हुमो का नहीं ] जैसे