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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [ सूत्र १२-१३ न विशेषश्चेत् । २, २, १२ । न गतार्थ दुष्ट, विशेषश्चेत् प्रतिपाद्यः स्यात् ॥ १२॥ तं विशेष प्रतिपादयितुमाहधनुध्विनौ धनुश्रुतिरारूढ़े. प्रतिपत्त्यै । १३ ।
धनुाध्वनावित्यत्र ज्याशब्देनोक्तार्थत्वेऽपि धनुःश्रुतिः प्रयुज्यते। जाने से ] चिन्ता और मोह शब्द का [पृथक् ] प्रयोग [ उक्तार्थ ] पुनरुक्त हो जाता है। [ वाक्य के ] पुनरुक्त पद वाला होने से [छत्रि-न्याय से समस्त ] वाक्य को पुनरुक्त [ उक्तार्थ ] कहा है।
[इसका अभिप्राय यह है कि उक्तार्थता या पुनरुक्ति तो पदो की होती है इसको वाक्यार्थ दोष कैसे कहा है। यह प्रश्न है। इसका समाधान ग्रन्थकार ने इस प्रकार किया है कि पुनरुक्ति का सम्बन्ध दो या अनेक पदो से होता है अतः उसको वाक्य दोष ही समझना चाहिए। अथवा इस समाधान का दूसरा अभिप्राय यह भी हो सकता है कि जैसे बहुत से व्यक्ति एक साथ जा रहे हों उनमें एक छतरी लगाए हो और अन्य निना छतरी के हों तो कभी-कभी उन सबके लिए जरा उन छतरी वालों को बुला लेना इस प्रकार का प्रयोग होता है। इस को 'छत्रिन्याय' कहते है । इस 'छत्रिन्याय' से वाक्यान्तर्गत एक पद की पुनरुक्तता से वाक्य की पुनरुक्ति मान कर इस उक्तार्थता को वाक्यदोष कहा जा सकता है ] ॥११॥
___ यदि [ इस उक्तार्थता में कोई ] विशेष [प्रयोजन ] हो तो [ यह 'उक्तार्थ' या 'एकार्थ ] दोष नहीं होता है।
यदि कोई विशेष [बात पुनरुक्ति से प्रतिपाद्य हो तो गतार्थता [उफ्तार्थता या पुनरुक्ति ] दोष नहीं होती है ॥१२॥
[जिस विशेषता के प्रदर्शन के लिए पुनरुक्ति होने पर भी उसको दोष नही माना जाता है ] उस विशेष का प्रतिपादन करने के लिए [अगले सूत्रों में कुछ उदाहरण] कहते है।
'धनुpध्वनों धनुष के चाप की टङ्कार [ इस प्रयोग] में ज्या' शब्द [प्रत्यञ्चा के ] चढाव की प्रतीति के लिए है।
'धनुpध्वनौ इस [प्रयोग ] में [ज्या अर्थात् प्रत्यञ्चा धनुष के सिवाय और किसी की होती ही नहीं इसलिए ज्या पद से ही धनुःपद के गतार्थ