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सूत्र ११] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [LE ____ व्याहतौ पूर्वोत्तरावौँ यस्मिंस्तद् व्याहतपूर्वोत्तरार्थ वाक्यं व्यर्थम् । यथा
अद्यापि स्मरति रसालसं मनो मे
मुग्धायाः स्मरचतुराणि चेष्टितानि ॥ मुग्धायाः कथं स्मरचतुराणि चेष्टितानि । तानि चेत् कथं मुग्धा । अत्र पूर्वोत्तरयोरर्थयोविरोधाद् व्यर्थमिति ॥ १० ॥
उक्तार्थपदमेकार्थम् । २, २, १५ । उक्तार्थानि पदानि यस्मिंस्तदुक्तार्थपरमेकार्थम् । यथा
चिन्तामोहमनङ्गमङ्ग तनुते विप्रेक्षितं सुभ्र वः।
अनङ्गः शृङ्गारः। तस्य चिन्तामोहात्मकत्वाचिन्तामोहशब्दौ प्रयुक्ताचुक्ताौँ भवतः । एकार्थपदत्वाद् वाक्यमेकार्थमित्युक्तम् ॥ ११॥
जिस [ वाक्य ] में [पूर्व और उत्तर] आगे-पीछे के अर्थ परस्पर विरुद्ध [ व्याहत ] हो वह परस्पर विरुद्धार्थ वाला वाक्य 'व्यर्थ [कहलाता] है। जैसे
[सम्भोगकालीन ] मानन्द से परिपूर्ण मेरा मन अब भी 'मुग्धा' पली को रति-क्रीड़ा की चतुरतापूर्ण चेष्टामो को याद कर रहा है।
[इसम वधू को 'मुग्धा और उसकी चेष्टामो को 'स्मरचतुराणि चेष्टितानि' कहा है। यह दोनों बातें परस्पर विरुद्ध है । क्योकि यदि वह 'मुग्धा है तो [ मुग्धा तु 'रतौ वामा'] 'मुग्धा' की चेष्टाएं रतिचतुर' कैसे [ हो सकती है] और यदि [ उसकी चेष्टाएं ] उस प्रकार की [रति चतुर] है तो वह 'मुग्या' कैसे [ हो सकती है इस प्रकार ] यहां प्रागे-पीछे की बातो [पूर्व और उत्तर प्रर्थों ] में विरोध होने से 'व्ययंत्व' दोष है ॥१०॥
पुनरुक्त [ उक्त अर्थ वाला ] पद 'एकार्थ' [ दोष कहलाता है।
जिस [ वाक्य ] में [ उक्तार्थ ] पुनरुक्त पद हो वह उक्तार्थ [पुनरुक्त] पद वाला [ वाक्य ] 'एकार्थ' [ वाक्यदोष कहलाता है । जैसे
उस सुन्दरी का कटाक्ष चिन्ता, मोह और काम को उत्पन्न करता है।
[यहां ] अनङ्ग [का अर्थ ] श्रृङ्गार है। उसके [ स्वयं ही ] चिन्ता और मोहात्मक होने से [अर्थात् चिन्ता तथा मोह के उसी काम के अन्तर्गत हो .
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