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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र २५
यत्र टित्यर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं स गुणोऽर्थव्यक्तिरिति । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । प्रत्युदाहरणन्तु भूयः सुलभा ॥ २४ ॥ श्रज्ज्वल्यं कान्तिः । ३, १,२५ ।
बन्धस्योज्ज्वलत्वं नाम यदसौ कान्तिरिति । यदभावे पुराणच्छायेत्युच्यते । यथा
कुरङ्गीनेत्राली तब कितवनालीपरिसरः ।
जहाँ [ जिन शब्दों में ] तुरन्त [ और विस्पष्ट रूप से ] अर्थ को प्रतीति कराने की [ हेतुत्व ] क्षमता होती है वह 'अर्थव्यक्ति' [ नामक ] गुण होता है । [ इस व्यक्ति गुण का भी ] पूर्वोक्त [ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि श्लोक हो ] उदाहरण है । [ उसके विपरीत ] प्रत्युदाहरण बहुत [ हो सकते है ] प्रोर सुलभ है । [ इसलिए हम यहां उसका प्रत्युदाहरण
अपने वृत्तिग्रन्थ में नहीं दे रहे है ] ।
वास्तव में इस 'अर्थव्यक्ति' गुरण के प्रभाव में १. प्रसाधुत्व, २. अप्रती - तत्व, ३ अनर्थकत्व, ४. श्रन्यार्थत्व, ५. नेयार्थत्व, ६. यतिभ्रष्टत्व, ७. क्लिष्टत्व, ८ सन्दिग्धत्व और 8. श्रप्रयुक्तत्व श्रादि दोष हो जाते है । उन दोषो के निरूपण में जो उदाहरण दिए है वह सब इस 'अर्थव्यक्ति' के प्रत्युदाहरण हो सकते है । इस लिए उसके प्रत्युदाहरणो को अलग दिखलाने की आवश्यकता नही है । यह मान कर वृत्तिकार ने अलग प्रत्युदाहरण नही दिखाया है ||२४|| 'कान्ति' नामक दशम गुरण का लक्षरण अगले सूत्र में करते है । [ रचना शैली को ] उज्ज्वलता [ नवीनता का नाम ] कान्ति [ गुण ] है ।
बन्ध की जो उज्ज्वलता [ नवीनता ] है वह ही कान्ति [ नामक ] है | जिस [ कान्ति] के अभाव में [ यह श्लोक या काव्य ] पुरानी नक्कल [ छाया ] है यह कहा जाता है । [ इस कान्ति नामक गुण का उदाहरण ]
जैसे
मुगियो के नेत्रों की पंक्ति से वनश्रेणी का किनारा [ पुष्पों के ] गुच्छों से युक्त सा [ प्रतीत हो रहा ] है ।
यहाँ 'कुरङ्गीनेवाली' से 'बनालीपरिसरः' अर्थात् वन प्रान्त को, हरिणियो के नेत्रो से फूलो के गुच्छो से भरा सा 'स्तबकित' सा कह कर जो वर्णन