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________________ १३४ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र २५ यत्र टित्यर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं स गुणोऽर्थव्यक्तिरिति । पूर्वोक्तमुदाहरणम् । प्रत्युदाहरणन्तु भूयः सुलभा ॥ २४ ॥ श्रज्ज्वल्यं कान्तिः । ३, १,२५ । बन्धस्योज्ज्वलत्वं नाम यदसौ कान्तिरिति । यदभावे पुराणच्छायेत्युच्यते । यथा कुरङ्गीनेत्राली तब कितवनालीपरिसरः । जहाँ [ जिन शब्दों में ] तुरन्त [ और विस्पष्ट रूप से ] अर्थ को प्रतीति कराने की [ हेतुत्व ] क्षमता होती है वह 'अर्थव्यक्ति' [ नामक ] गुण होता है । [ इस व्यक्ति गुण का भी ] पूर्वोक्त [ 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि श्लोक हो ] उदाहरण है । [ उसके विपरीत ] प्रत्युदाहरण बहुत [ हो सकते है ] प्रोर सुलभ है । [ इसलिए हम यहां उसका प्रत्युदाहरण अपने वृत्तिग्रन्थ में नहीं दे रहे है ] । वास्तव में इस 'अर्थव्यक्ति' गुरण के प्रभाव में १. प्रसाधुत्व, २. अप्रती - तत्व, ३ अनर्थकत्व, ४. श्रन्यार्थत्व, ५. नेयार्थत्व, ६. यतिभ्रष्टत्व, ७. क्लिष्टत्व, ८ सन्दिग्धत्व और 8. श्रप्रयुक्तत्व श्रादि दोष हो जाते है । उन दोषो के निरूपण में जो उदाहरण दिए है वह सब इस 'अर्थव्यक्ति' के प्रत्युदाहरण हो सकते है । इस लिए उसके प्रत्युदाहरणो को अलग दिखलाने की आवश्यकता नही है । यह मान कर वृत्तिकार ने अलग प्रत्युदाहरण नही दिखाया है ||२४|| 'कान्ति' नामक दशम गुरण का लक्षरण अगले सूत्र में करते है । [ रचना शैली को ] उज्ज्वलता [ नवीनता का नाम ] कान्ति [ गुण ] है । बन्ध की जो उज्ज्वलता [ नवीनता ] है वह ही कान्ति [ नामक ] है | जिस [ कान्ति] के अभाव में [ यह श्लोक या काव्य ] पुरानी नक्कल [ छाया ] है यह कहा जाता है । [ इस कान्ति नामक गुण का उदाहरण ] जैसे मुगियो के नेत्रों की पंक्ति से वनश्रेणी का किनारा [ पुष्पों के ] गुच्छों से युक्त सा [ प्रतीत हो रहा ] है । यहाँ 'कुरङ्गीनेवाली' से 'बनालीपरिसरः' अर्थात् वन प्रान्त को, हरिणियो के नेत्रो से फूलो के गुच्छो से भरा सा 'स्तबकित' सा कह कर जो वर्णन
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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