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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[सूत्र ८
अश्लीलत्वं यथा -
१. विरेचकमिदं नृत्तमाचार्याभासयोजितम् ।
सन्धिविश्लेप का आश्रय लेना एक प्रकार का श्रापद्धर्म ही हो सकता है। उसका अवलम्बन तभी करना उचित है जब कोई अन्य मार्ग न हो । इसलिए जब कवि इस प्रकार का प्रयोग करता है तो यह निश्चित है कि उसके पास दूसरा और कोई मार्ग नहीं रह गया है। यही उसकी अशक्ति का परिचायक है। इसलिए विवक्षाधीन सन्धिविश्लेष यदि एक भी बार प्रयोग किया जाय तो भी वह दोषाधायक होता है। और प्रगृह्यसंज्ञा-निमित्तक सन्धि विश्लेष एक बार करने से दोष नहीं होता परन्तु इकट्ठा अनेक बार करने पर वह भी दोष हो जाता है। इसी लिए आगे इसी ग्रन्थ के 'काव्यसमयाध्याय' में 'निर सहितकपदवत् पादेष्वर्धान्तवर्जम्' यह सूत्र कहेगे । इसके अनुसार काव्य में एक चरण के अन्तर्गत पदों मे सन्धि नित्य करना चाहिए । व्याकरण के अनुसार सन्धि को विवक्षाधीन भले ही माना जाय परन्तु कवियो की परम्परा या 'समय' यह ही है कि जैसे एक पद के अन्तर्गत सन्धि अनिवार्य है इसी प्रकार श्लोक के एक चरण के अन्तर्गत भी नित्य सन्धि होती है इसलिए यदि विवक्षाधीन मानकर एक बार भी सन्धिविश्लेष होता है तो वह काव्य दोष ही माना जायगा।
सन्धिविश्लेष दोष का निरूपण करने के बाद सन्धि अश्लीलता दोप का । निरूपण करते हैं । जैसाकि पहिले कहा जा चुका है १ जुगुप्सा व्यञ्जक, २.बीड़ा व्यञ्जक और ३. अमङ्गलातकदायेि तीन प्रकार की अश्लीलता होती है । उन तीनों को दिखाने के लिए तीन उदाहरण देते है।
१ [ सन्धिविश्लेष में जुगुप्सादायि ] अश्लीलत्व का उदाहरण] जैसे
अयोग्य प्राचार्य [प्राचार्याभास ] द्वारा योजित [ होने से ] यह 'नृत्त' रेचक [ नामक 'नृत्त' के भेव ] से रहित [ अतः विरेचक ] है ।
इस उदाहरण मे 'विरेचक' पद का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ । 'रेचक' रहित होता है । रेचक' शब्द नाट्यशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । नृत्यकाल में हाथ, पैर, कमर, गर्दन, आदि की विशेष प्रकार की जो चेष्टाएं होती है उनको 'रेचक' कहते है। सङ्गीतरत्नाकर मे कहा है
'रेचकानय वक्ष्यामश्चतुरो भरतोदितान् । पदयोः करयोः कट्या ग्रीवायाश्च भवन्ति ते ॥
१ काव्यालङ्कार सूत्रवृत्तिः ५, १, २।