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सूत्र ८] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [६५
१-मेघाऽनिलेन अमुना एतस्मिन्नद्रिकानने । २-कमले इव लोचने इमे अनुबध्नाति विलासपद्धतिः। ३-लोलालकानुविद्धानि आननानि चकासति । इस पहाड़ी वन [प्रान्त ] में इस मेघ की [ वृष्टि सहित तीन ] वायु ने ।
इस उदाहरण मे अनिलेन+अमुना मे दीर्घ तथा अमुना+एतस्मिन् मे वृद्धि नहीं की गई है इसलिए सन्धि विश्लेष रूप 'विसन्धि' दोष है ।
कमलों के समान सौन्दर्य इन नेत्रो को सुशोभित करता है।
दूसरे उदाहरण मे १, कमले इव, २. लोचने इमे, ३. इमे अनुबध्नाति इन तीनों स्थानों पर प्राप्त होने वाली सन्धि १ देद द्विवचन प्रगृह्यम्' इस पाणिनि सूत्र से प्रगृह्य सजा हो जाने से और "प्लुप्तप्रगृह्या अचि नित्यम् ।' इस मूत्र से प्रकृतिवद्भाव हो जाने से नही हो पाती है । इस प्रकार यह सन्धिविश्लेष शास्त्रादेश के अनुसार किया गया है। फिर भी अनेक बार इकहा ही इस प्रकार का विश्लेष पाया जाता है । इसलिए वह श्रोता को वैरस्यापादक प्रतीत होता है । और कवि की अक्षमता का सूचक होने से दोष ही । होता है। यह सन्धि विश्लेष का 'प्रगृह्य सजा' निमित्तक एक प्रकार का भेद है। इस सन्धिविश्लेष का दूसरा भेद 'सन्ध्यविवक्षा' निबन्धन होता है अर्थात् जहा कवि, सन्धि की विवक्षा नहीं है ऐसा मान कर सन्धि नहीं करता है। इस प्रकार का दूसरा उदाहरण देते हैं
चञ्चल केशपाश से घिरे हुए मुख शोभायमान हो रहे है।
यहा 'लोलालकानुविद्धानि' के बाद 'माननानि' पद होने के कारण "इको यणचि' सूत्र से यणादेश प्राप्त है । उसके अनुसार 'अनुविद्धान्याननानि' ऐसा प्रयोग होना चाहिए । परन्तु यदि ऐसा प्रयोग किया जाता है तो यह छन्द ठोक नही बनता है । इसलिए कवि ने यहा जान-बूझ कर सन्धि नहीं की है। यद्यपि सर्वत्र सन्धि करना नितान्त आवश्यक नहीं है अपितु सन्धि के विवक्षा के आधीन होने से, कवि, विवक्षित न होने पर सन्धि न करने के लिए स्वतत्र है । परन्तु ऐसे पटो का प्रयोग कवि की अशक्ति का सूचक अवश्य होता है । जहाँ सन्धि होनी चाहिए वहा सन्धि न करने के लिए बाधित होकर
१ अप्टाध्यायी १, १, ११। ३ अप्टाध्यायी६, १.७७ ॥
२ अप्टाध्यायी ६, १, १२५ ।