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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ
[ सूत्र ७-८
विरूपपदसन्धिविसन्धि । २,२, ७ ।
पदानां सन्धिः पदसन्धिः स च स्वरसमवायरूपः प्रत्यासत्तिमात्ररूपो वा । स विरूपो यस्मिन्निति विग्रह. ॥ ७ ॥ पदसन्धिवैरूप्य विश्लेषोऽश्लीलत्व कष्टत्वञ्च । २, २, ८ ।
विश्लेषो विभागेन पदाना संस्थितिरिति । अश्लीलत्वमसभ्यस्मृतिहेतुत्वम् । कष्टत्वं पारुष्यमिति । विश्लेषो यथा
इस प्रकार दोनो के लक्षण भिन्न होने से दोनो को अभिन्न मानना उचित नही है । इसी कारण स्थान मे विराम रूप यतिभ्रष्टत्व रहने पर भी गुरु-लघु नियम के यथावत् विद्यमान रहने पर भिन्नवृत्तत्व दोष नहीं होता । इसी प्रकार गुरु-लघु नियम का भत हो जाने से भिन्नवृत्तत्व दोष के होने पर भी विराम मे वैरस्य न होने से यतिभ्रष्टत्व दोष नही होता । श्रतः श्रन्वयव्यतिरेक के भेद से भी भिन्नवृत्तत्व र यतिभ्रष्टत्व दोष एक नही हो सकते हैं । उनको अलग-अलग मानना ही उचित है ॥ ६ ॥
जहां पदो की विरूप [ अनुचित ] सन्धि हो उसको 'विसन्धि' दोष कहते है ।
पदो को सन्धि [ यह ] पदसन्धि [ समास का विग्रह ] है । और वह [ सन्धि ] स्वरो का मिश्रण [ समवाय ] रूप अथवा [ स्वरो की ] प्रत्यासत्ति [ समीपस्थिति मात्र दो प्रकार का ] होता है । वह [ स्वरसमवाय रूप अथवा स्वर प्रत्यासत्ति रूप सन्धि ] जहा [ जिस शब्द या वाक्य में ] विरूप [ अनुचित, वैरस्यापादक ] हो [ वह विसन्धि कहलाता है ] यह विग्रह हुआ ॥ ७ ॥
[ पूर्व सूत्र में कहा हुआ ] पद- सन्धि का वैरूप्य ९. विश्लेष रूप २. अश्लीलत्वरूप, और ३ कष्टत्व रूप [ तीन प्रकार का ] होता है ।
[ सन्धि होने योग्य स्थलो पर सन्धि न करके ] अलग-अलग [ विभान] पदो की स्थिति [ रखना ] विश्लेष [ या सन्धि विश्लेष दोष कहलाता ] है । [ पदो की सन्धि कर देने से जहा ] असभ्यार्थ की स्मृति का हेतुत्व [ उस सन्धि में हो जाय वहा सन्धि का ] अश्लीलत्व [ दोष होता ] है । और कष्टत्व [ का अर्थ सन्धि से उत्पन्न पारुष्य ] कठोरता । [ उनमें से ] विश्लेष [ का उदाहरण ] जैमे—