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________________ सूत्र ८ ] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय २. चकासे पनसप्रायैः पुरी घण्डमहाद्रुमैः । ३. विना शपथदानाभ्यां पदवादसमुत्सुकम् । [ ६७ नाट्यशास्त्र के नियमो के अनुसार 'नृत्त ताललयाश्रयम् ' प्रत्येक सुन्दर 'नृत्त' में इन 'रेचको' का होना आवश्यक है । नाट्यशास्त्र का जानने वाला कोई श्राचार्य 'रेचको' से हीन 'विरेचक' 'नृत्त' नही करवा सकता है। किन्तु यह 'नृत्त' 'विरेचक' अर्थात् उक्त 'रेचको' से हीन है इसलिए जान पड़ता है कि किसी 'श्राचार्याभास' अर्थात् अयोग्य किन्तु श्राचार्यम्मन्य व्यक्ति ने इसकी योजना की है | 'विरेचकभिद नृत्तमाचार्याभासयोजितम्' इस पद का यही अभिप्राय है । परन्तु इसमें 'विरेचक' पद दस्तावर का और 'याम' पद मैथुन का स्मारक भी है, इसलिए यह दोनों क्रमशः 'जुगुप्सादायी' तथा 'वीडादायी' अश्लीलता के उदाहरण हो जाते हैं । 'विरेचक' पद मे अश्लीलता की स्थिति सन्धिदोष के कारण नहीं है । ' श्राचार्याभास' में 'याम' अश जो मैथुन का स्मारक होने से 'व्रीडादायी' होता है उसमें अश्लीलता का प्रयोजक सन्धि ही है । इस लिए यह 'व्रीडादायी' अश्लीलता रूप सन्धि-दोष का उदाहरण है । 'जुगुप्सादायी ' सन्धिदोष का उदाहरण दूसरा देते हैं 1 जिनमें कटहल बहुतायत से है ऐसे बड़े-बड़े वृक्षो के झुण्डो से [ घिरी हुई यह ] नगरी शोभित हो रही थी । इस उदाहरण 'पुरी पण्डमहाद्र ुमैः ' यह श्रश 'जुगुप्सा' व्यञ्जक अश्लीलता दोष से युक्त है । यहा यद्यपि स्वरसमुदाय रूप कोई सन्धि नहीं हुई है । परन्तु पुरी + षण्ड के समीपस्थ होने से 'प्रत्यासत्ति' रूप सन्धि मात्र से 'पुरीष' शब्द बन गया है जो 'विष्ठा' का स्मारक होने से यह 'जुगुप्सा व्यञ्जक' अश्लीलता का उदाहरण है। तीसरा निम्न उदाहरण अश्लीलता के तीसरे भेद 'श्रमङ्गलातङ्कदायी' अश्लील का दिया गया है - विना किसी [ लोकोपकार श्रादि कार्य के ] प्रतिज्ञा [ शपथ ] या [ किसी प्रकार के ] दान [ आदि कार्य ] के [ किए हुए भी ] पदवाद [ पद प्राप्ति की योग्यता सूचन ] के लिए उत्सुक को । इसमें 'विना' और 'शपथ' शब्दों की प्रत्यासत्ति रूप सन्धि से 'विनाशपथ' शब्द बन गया है और उससे 'विनाशपथ' अर्थात् मृत्यु मार्ग की स्मृति होती है, तः वह 'श्रमङ्गलातङ्कदायी' अश्लीलता का उदाहरण हे और उसका कारण विना + शपथ शब्दों की प्रत्यासत्ति रूप सन्धि है । यहा मुख्यतः सन्धिदोप
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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