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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो
[ सूत्र ४
शिखरिण्यां यथा
विनिद्रः श्यामान्तेष्वधरपुटसीत्कारविरुतैः । स्वरसन्ध्यकृत इति वचनात् स्वरसन्धिकृते भेदे न दोपः । यथाकिञ्चिद्भावालसम सरलं प्रेक्षितं सुन्दरीणाम् ॥ ४ ॥
इस यति से धातु भाग के खण्ड नही होते हैं अपितु प्रकृति और तिप् प्रत्यय के बीच में यति पड़ती है इसलिए वह दोपाधायक नहीं है ।
[ इसी प्रकार प्रातिपदिक और प्रत्यय के बीच हुई यति का ] शिखरिणी [ वृत्त ] में [ निम्न उदाहरण है ] जैसे
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रात्रि [ श्यामा रात्रि ] के अन्त में [ प्रातःकाल ] श्रधरपुर के सीत्कार के शब्द से जगा हुथा ।
'शिखरिणी' छन्द के इस चरण में, छठे अक्षर के बाद ' विनिद्रः श्यामान्ते' यहा पर 'यति' पड़ती है । परन्तु 'श्यामान्ते' यहा पद पूर्ण नहीं होता है । 'श्यामान्तेपु' यहा पर पद पूर्ण होता है । इसलिए यह 'यति' पद के बीच में पड़ती है परन्तु उमसे प्रातिपदिक के खराड नही होते अपितु प्रातिपदिक और सुप् प्रत्यय के बीच मे 'यति' पड़ती है । इस प्रकार की 'यति' वैरस्यतापादक नहीं होती है । इसलिए यहा 'यतित्व' दोष नही होता है ।
[ सूत्र में ] 'स्वरसन्ध्यकृते' स्वर सन्धि के बिना [ मूल रूप से ] किये हुए कहने से स्वर- सन्धि से किए हुए [ श्रर्थात् स्वर- सन्धि से बने हुए धातुभागप्रातिपदिक अथवा नामभाग के ] भेद होने पर दोष नहीं होता है [ यह अभिप्राय निकलता है | इस प्रकार का उदाहरण देते है ] जैसे -
कुछ भाव भरी [ श्रतः ] अलसाई सी सुन्दरियो की तिरछी चितवन । यह भी 'मन्दाक्रान्ता' छन्द का एक चरण है । नियमानुसार इसमें चतुर्थ अक्षर के बाद अर्थात् 'किञ्चिद्भावा' के बाद 'यति' पड़ती है । किन्तु यहा पूरा पद 'किञ्चिद्भावालस' है । उसके बीच में 'यति' पढ़ रही है । परन्तु वहा भाव और लस दो पटों के बीच 'कः सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से दीर्घ होकर 'किञ्चिद्भावालम' बनता है | इस सन्धिकृत पद मे से 'यति' के अवसर पर 'किञ्चिदभावा' अश एक थोर, और 'लस' दूसरी श्रोर निकल जाता है । परन्तु फिर भी इस प्रकार की यति वैरस्याधायक नहीं होती है । इसलिए स्वरसन्धिकृत अर्थात् स्वर सन्धि से बने हुए नाम अर्थात् प्रातिपदिक अथवा धातु के खण्ड होने पर भी ऐसे स्थलो मे 'यतिभ्रष्टत्व' टोप नहीं होता है । यह सूत्रकार का अभिप्राय है || ४ ||