________________
•
सूत्र ४ ]
द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
मन्दाक्रान्तायां यथा— दुर्दर्श श्चक्र शिखिकपिशः, शार्ङ्गिणो वाहुदण्डः । धातु-नाम-भागपदग्रहणात् तद्भागातिरिक्तभेदे न भवति यति
भ्रष्टत्वम् ।
जैसे
[ ६१
यथा मन्दाक्रान्तायाम् -
शोभां पुष्यत्ययमभिनवः, सुन्दरीणां प्रबोधः ।
से १७ अक्षरों के पाद वाला छन्द 'शिखरिणी' होता है । इसमे रस अर्थात् छः और रुद्र ग्यारह अक्षरों के बाद 'यति' होती है। पहली 'यति' छठे वर्ण के बाद और दूसरी 'यति' १७ वर्णं के बाद अर्थात् पादान्त मे होती है। इस लक्षण के अनुसार कुरङ्गाक्षीणा ग', यहा पर छः अक्षरो के बाद पहिला 'यति' पडती है । परन्तु यह 'ग' गण्ड अथवा 'गण्डतल फलके' इस समस्त प्रातिपदिक का एक देश हैं । इसके बाद 'यति' करने से प्रातिपादिक दो टुकडों में बट जाता है। अतएव नामभागभेद के कारण यहा यतिभ्रष्टत्व दोष श्राता है ।
'मन्दाक्रान्ता' [ छन्द ] में [ नामभागभेद से यतिभ्रष्ट का उदाहरण ]
चक्र [ सुदर्शनचक्र ] की अग्नि से [ अथवा के समान ] दीप्यमान [ श्रथवा पीताम्बर परिवेष्टित अतएव पीत ] विष्णु का भुजदण्ड है ।
मन्दाक्रान्ता के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार प्रथम चार ग्रहरों के बाद अर्थात् 'दुर्दर्शश्च', यहा पर यति होनी चाहिए। परन्तु यह 'च' 'चक्र' पढ का एक देश है। उसके बाद यति कर देने से 'चक्र' इस प्रातिपदिक ग्रथवा नामभाग में भेद हो जाता है। इसलिए यह 'यतिभ्रष्ट' दोप ग्रस्त है ।
सूत्र में धातु [ भाग ] और नाम भाग पदो का ग्रहण करने से [ यह अर्थ निकलता है कि ] उन भागो से भिन्न [ प्रकृति प्रत्यय प्रादि ] में भेद [ या खण्ड ] हो जाने पर 'यतिभ्रष्टत्व' दोष नहीं होता है ।
जैसे 'मन्दाक्रान्ता' में [ प्रकृति-प्रत्यय के बीच में यति होने पर भी 'यतिभ्रष्टत्व' दोष के न होने का निम्न उदाहरण ] -
यह [ रतिश्रमास ] सुन्दरियो का नवीन [ प्रातःकालीन ] जागरण [ उनकी ] शोभा को बढ़ा रहा है ।
इस मूल मन्दाक्रान्ता के चरण में चतुर्थाक्षर 'शोभा पुष्य' के बाद यति पडती है। यह 'पुप्य' का अन्तिम अक्षर 'पुष्यति' इस पद का श है । परन्तु