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दोषदर्शननाम्नि द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय
[ वाक्य वाक्यार्थ- दोष विभागः ] पदपदार्थदोषान् प्रतिपाद्य वाक्यदोषान् दर्शयितुमाहभिन्नवृत्तयतिभ्रष्टविसन्धीनि वाक्यानि । २, २, १ ।
दुष्टानीत्यभिसम्बन्धः ॥ १ ॥ क्रमेण व्याचष्टे
स्वलक्षणच्युतवृत्त भिन्नवृत्तम् । २,२, २, स्वस्माल्लक्षणाच्च्युत वृत्तं यस्मिस्तत् स्वलक्षणच्युतं वृत्तं वाक्यं भिन्नवृत्तम् । यथा—
अयि पश्यसि सौधमाश्रितामविरल सुमनोमालभारिणीम् ।
'दोषदर्शन' नामक द्वितीय श्रधिकरण का द्वितीय श्रध्याय
[ वाक्य तथा वाक्यार्थ दोषों का विभाग ]
[ द्वितीय अधिकरण के पिछले प्रथम अध्याय में ] पद-दोषो तथा पदार्थदोषो का प्रतिपादन करके [ अब इस द्वितीय अध्याय में ] वाक्य-दोषो को दिखाने के लिए कहते हैं
भिन्नवृत्त, यतिभ्रष्ट और विसन्धि [ तीन प्रकार के ] वाक्य [ दोष ] है । [ पिछले अध्याय के चतुर्थ सूत्र से 'दुष्ट' पद के एक वचन का 'दुष्टानि ' बहुवचन में वचन - विपरिणाम करके भिन्नवृत्त, यतिभ्रष्ट और विसन्धि तीन प्रकार के वाक्य ] दुष्ट होते है यह सम्बन्ध [ पिछले प्रकरण से ] है ॥ १ ॥
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[ इन तीनो प्रकार के वाक्य दोषो की ] क्रम से व्याख्या करते है । अपने लक्षण से हीन वृत्त [ छन्द ] को भिन्नवृत्त [ दोष ग्रस्त ] कहते है । जिस [ श्लोक वाक्य ] में वृत्त [ छन्द ] अपने लक्षण से च्युत हो वह स्वलक्षणच्युत वृत्त वाला [ इलोक ] वाक्य भिन्नवृत्त होता है। जैसे
अरे [ मित्र ] सघन [ श्रविरल ] पुष्पो की माला के भार को धारण