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सूत्र ३-४ ] द्वितीयाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [८९
वैतालीययुग्मपादे लध्वक्षराणां षण्णां नैरन्तर्य निषिद्धम् , तच्च कृतमिति भिन्नवृत्तम् ॥२॥
विरसविराम यतिभ्रष्टम् । २, २, ३ । विरसः श्रुतिकटुर्विरामो यस्मिंस्तद् विरसविरामं यतिभ्रष्टम् ॥३॥ तद्धातुनामभागभेदे स्वरसन्ध्यकृते प्रायेण । २, २, ४ ।
तद् यतिभ्रष्टं धातुभागभेदे नामभागभेदे च सति भवति । स्वरसन्धिनाऽकृते प्रायेण ।
करने वाली, महल [ सोध-प्रासाद] के ऊपर खडी हुई [ नायिका ] को देख रहे हो।
यह श्लोक 'वैतालीय' वृत्त मे लिखा गया है । 'वैतालीय' वृत का लक्षण 'वृतरत्नाकर' ग्रन्य में इस प्रकार किया गया है
षड्विषमेऽष्टौ समे कलाम्ताश्च समे स्युर्नो निरन्तराः।
न समात्र पराश्रिताः कला वैतालीयेऽन्ते रलो गुरुः ॥
वैतालीय [ वृत्त] के सम[ अर्थात् द्वितीय तथा चतुर्थ ] चरणो में निरन्तर छ लघु अक्षरो [ एकसी छः मात्रानो ] का निषेध किया हुआ है। [ परन्तु उक्त उदाहरण में 'अविरलसुम यह छहो लघु मात्राएं निरन्तर प्रयुक्त करके, जो निषिद्ध है वह ही किया गया है इसलिए [ यहां 'वतालीय' वृत्त अपने लक्षण से च्युत हो जाने से ] 'भिन्नवृत्त' [बोष से युक्त ] है। [ अतएव इस को भिन्नवृत्त के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है ] ॥२॥
'भिन्नवृत्त के बाद 'गतिभ्रष्ट' नामक दूसरे वाक्यदोष का निरूपण करते हैं
विरस [अरुचिकर स्थल में] विराम वाला [श्लोक वाक्य ] यतिभ्रष्ट [ कहलाता है।
विरस अर्थात् श्रुतिकट [ सुनने में बुरा लगने वाला] विराम जिस [श्लोक वाक्य ] में हो वह विरस विराम [ यह बहुव्रीहि समास है ] वाला , [ श्लोक वाक्य ] यतिभ्रप्ट [ दोष से युक्त कहलाता है ॥३॥
वह [ यतिभ्रष्ट दोष ] प्रायः स्वरसन्धि के [ नियम के ] विना [ स्वर ' सन्धि के नियम के विपरीत ] किए हुए धातु अथवा [ नाम ] प्रातिपादिक भाग में दुकडे कर देने पर होता है।
वह यतिभ्रष्ट [ दोष ] प्रायः स्वरसन्धि के बिना, [स्वर सन्धि के