SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहगे कि वह पाठकको Confidence मे, विश्वासमें, ले लेते है । अमुक पात्र क्यो अब ऐसी अवस्था में है,-पाठक इस बारेमें असमंजसमे नही रहने दिया जाता । सब-कुछ उसे खोल खोलकर बतला दिया जाता है। इस तरह, पाठक सहज रूपमे पुस्तककी कहानीके साथ आगे बढ़ता जाता है, इसमें उसे अपनी ओरसे बुद्धि-प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होती,—पात्रोंके साथ मानो उसकी सहज जान-पहचान रहती है । इसलिए, पुस्तकमें ऐसा स्थल नही आता जहाँ पाठक अनुभव करे कि वह पात्रके साथ नहीं चल रहा है,--जरा रुककर उसके साथ हो ले । वह पुस्तक पढ़नेको ज़रा थामकर अपनेको सँभालनेकी जरूरतमे नहीं पड़ता। ऐसा स्थल नहीं आता जहाँ आह खींचकर वह पुस्तकको बन्द करके पटक दे और कुछ देर आँसू ढालने और पोछनेमें उसे लगाना पड़े और फिर, तुरत ही फिर पढ़ना शुरू कर दे । पाठक बड़ी दिलचस्पीके साथ पुस्तक पढ़ता है, और उसके इतने साथ साथ होकर चलता है कि कभी उसके जीको जोरका आघात नहीं लगता जो बरबस उसे रुला दे। __गबन में मार्मिक स्थल कम नहीं हैं, पर, प्रेमचन्दजी ऐसे विश्वास ऐसी मैत्री और परिचयके साथ सब-कुछ बतलाते हुए पाठकको वहॉ तक ले जाते है कि उसे धक्का-सा कुछ भी नहीं लगता। वह सारे रास्ते-भर प्रसन्न होता हुआ चलता है, और अपने साथी ग्रंथकारकी जानकारीपर, कुशलतापर, और उसके अपने प्रति विश्वासपर, जगह जगह मुग्ध हो जाता है। पग-पगपर उसे पता चलता रहता है कि इस कहानीके स्वर्ग से उसका हाथ पकड़कर ले जाता हुआ उसका पथदर्शक बड़ा सहृदय और
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy