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________________ प्रेमचन्दजीकी कला जगह उनकी रचनाओंमें ऐसे वाक्यांश बिखरे भरे पड़े है, जिन्हें जी चाहता है कि आदमी कंठस्थ कर ले । उनमें ऐसा कुछ अनुभवका मर्म भरा रहता है! प्रेमचन्दजी तत्त्वकी उलझन खोलनेका काम करते हैं, और वह भी सफाई और सहजपनके साथ । उनकी भाषाका क्षेत्र व्यापक है, उनकी कलम सब जगह पहुँचती है; लेकिन, अंधेरेसे अंधेरेमें भी वह धोका नहीं देती । वह वहाँ भी सरलतासे अपना मार्ग वनाती चली जाती है । सुदर्शनजी और कौशिकजीकी भी कलम वड़े मजे-मजेमें चलती है, लेकिन, जैसे वह सड़कोपर चलती है, उलझनोंसे भरे विश्लेषणके जङ्गलमे भी उसी तरह सफाईसे अपना रास्ता काटती हुई चली चलेगी, इसका मुझे परिचय नहीं है। स्पष्टताके मैदानमे प्रेमचन्द सहज अविजेय हैं। उनकी बात निति, खुली, निश्चित होती है। अपने पात्रोको भी सुस्पष्ट, चारों ओरसे सम्पूर्ण बना कर वह सामने लाते है। उनकी पूरी मूर्ति सामने आ जाती है । अपने पात्रोंकी भावनाओके उत्थानपतन, घात-प्रतिघातका पूरा पूरा नकशा वह पाठकके सामने रख देते हैं। तद्गत कारण, परिणाम, उसका औचित्य, उसकी अनिवार्यता आदिके संबन्धमे पाठकके हृदयमें संशयकी गुंजायश नहीं रह जाती। इसलिए, कोई वस्तु उनकी रचनामे ऐसी नहीं आती जिसे अस्वाभाविक कहनेको जी चाहे, जिसपर विस्मय हो, प्रीति हो, बलात् श्रद्धा हो । सबका परिपाक इस तरह क्रमिक होता है, ऐसा लगता है, कि मानों बिल्कुल अवश्यम्भावी है । अपने पाठकके साथ मानों वे अपने भेदको बाँटते चलते हैं । अंग्रेजीमें यों ९९
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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