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________________ प्रेमचन्दजीकी कला विलक्षण पुरुष है । पाठक बिलकुल उसका होकर रहनेको तैयार होता है । यह बहुत सतर्क और उबुद्ध होकर नहीं चलता, क्योकि, उसे भरोसा रहता है कि ग्रंथकार उसे छोड़कर इधर-उधर भाग नहीं जायगा, उसको साथ लिये चलेगा। इसलिए, ग्रंथकारको भागकर छुनेका अभ्यास करके उसके साथ रहने और, इस प्रकार, अपरिचित रास्तेपर झटकों-धक्कोंको खाते कभी उनपर हँसते और कभी रोते हुए चलनेका मजा पाठकको नहीं मिलता; पर पाठक इस स्वादको भी चाहता है। मैं 'गबन' पढते हुए कहीं भी रो नहीं पड़ा। रवीन्द्रकी एकाच किताब पढ़नेमें, बंकिम पढ़नेमे, शरद पढ़नेमें, कई बार बरबस आँखोंमें ऑसू फूट आये है। फिर भी, प्रेमचन्दकी कृतियोंसे जान पड़ता है कि मै उनके निकट आ जाता हूँ, उनपर विश्वास करने लगता हूँ। शरद पढ़ते हुए कई बार गुस्सेमें मैने उसकी कृतियोको पटक दिया है, और रोते रोते उसे कोसनेको जी किया है । 'कम्बख्त न जाने हमें कितना और तंग करेगा!', इस भावसे फिर उसकी पुस्तक उठा कर पढ़ना शुरू कर दी है। ऐसा मेरे साथ हुआ है। इसके प्रतिकूल, प्रेमचन्दकी कृतियोसे उनके प्रति अनजाने सम्मान और परिचयका भाव उत्पन्न होता है। शरद और कई अन्यकी रचनाएँ पढ़ते वक्त जान पड़ता है जैसे इनके लेखक हमसे परिचय बनाना नहीं चाहते; हमारी, अर्थात् पाठककी, इन्हे बिलकुल पर्वाह नहीं है। हमारे भावोंकी रक्षा करनेकी इन्हें बिल्कुल चिन्ता नहीं है। जैसे हमारा जी दुखता है या नहीं दुखता, हम नाराज़ होते हैं या खुश, हमे अच्छा लगता है या बुरा, इसके १०१
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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