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________________ पहले प्रकारके पुरुषके, नास्तिकके, निकट यह साबित नहीं किया जा सकता कि जो वह समझता है वही विश्त्रका सत्य नहीं है। यानी, यह कि यहाँ गर्वस्फीत शक्तिकी ही जय नहीं है, उसके अन्तर्गत किसी और ही परम सत्ताकी जय है । दूसरे प्रकारके पुरुषके निकट इसी भाँति यह कभी प्रमाणित नही किया जा सकता कि सत्य कभी हारता है । ऐसा पुरुष मरते मर सकता है, पर सत्यकी राह छोड़ते उससे नहीं बनता । इन दोनों प्रकारके तत्वोंके बीच और इन दोनों भाँतिके पुरुषों के मध्य श्रालाप - संलाप, तर्क- विग्रह और संधि-भेद चलता ही रहता है । इसीका नाम विश्वकी प्रक्रिया है । Bologn हमारी मानवीय दुनियाका जो साहित्य-कोष है, वह इसी प्रकारकी प्रक्रियाका शब्दबद्ध संग्रह है । इन दो तरह के लोगोंमे एक दूसरेको सममनेकी चेष्टाएँ और न समझनेकी महंता, परस्परको पूर्ण बनाने का उद्यम और परस्परको कृतकार्य करनेका उद्योग आदि आदि - कालसे चलता चला आ रहा है। इसी संघर्ष और इसी समन्वयमेसे, अर्थात् इसी मंथनमेंसे, ज्ञान ऊपर आता है और प्रगति संपन्न होती है। किन्तु, हम जल्दीमे हैं और यहाँ हम हठात् एक सवाल उठा लेंगे और कुछ देर उसके साथ उधेड़-बुन करके आपसे छुट्टी लेंगे । सवाल के लिए 'कला' शब्द ही लीजिए । कला क्या है, इसपर बहुत-कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जा रहा है । कुछ तो उसमें काफी शास्त्रीय है, कुछ ऐसा भी है जिसमे ताज़गी है। 'कला' शब्दको ऐसा विवादास्पद शब्द बनानेकी हमारी अनुमति नहीं है जिसको लेकर दो व्यक्ति प्रापसमें सहानुभूति से वंचित हो जायें । २४
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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