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________________ अधलेटी रसीली रंभा, इन दोनोंमेसे, बताओ, साहित्य किसको लेकर धन्य होगा ? हाँ, मैं कहूँगा, 'सृष्टाके लिए Preference ( = पक्षपात ) होते होंगे और जितने स्पष्ट और पैने हो उतना अच्छा, यहाँ तक कि उनकी धार इतनी पैनी हो कि वे व्यक्तियोंमेंसे पार होते चले जायें और व्यक्तिको दैहिक चोट तनिक न अनुभव हो । और, जिस तरह रमल्ला अधिक से अधिक ईमानदार और उद्यमी ओर त्रस्त होकर भी अपने ऊपर लिखी गई रचनाको निकम्मी होनेसे नहीं रोक सकता, उसी तरह, रंभा अधिक से अधिक कुटिल होकर भी अपने ऊपर लिखी गई साहित्यिक रचनाको प्रतिशय धन्य होनेसे नहीं रोक सकती । मेरे भाई, मैं अपनेसे कहूँगा, किसीकी भी आत्मा, वेदना और स्वप्नसे खाली नहीं है । अहंकार छोड़कर उसकी आत्मामें तुम तनिक भाँक सको, चाँढाल हो कि ब्राह्मण, वेश्या हो कि संत, राजा हो या रंक, सब कहीं वह है जो तुम्हारी खोजकी वस्तु है । किसीको तजनेकी आवश्यकता नहीं, किसीको पूजनेकी ज़रूरत नही । साहित्यके दर्शकी मूर्तिको 'रमल्ला ' में स्थापित करने के लिए उसे 'रंभा' में से क्यों तोड़ते हो ? यों तो मूर्ति ही ग़लत है, क्योंकि, मूर्तिसे बाहर होकर भी साहित्यका आदर्श ठौर ठौर अणु-अणुमें व्यापा है । लेकिन, यदि तुम मूर्ति चाहते ही हो, और रमल्ला में आदर्श- दर्शन सहज तुम्हे होते हैं तो सहर्ष तुम उस मंदिर में सर्वांग- मूर्ति प्रतिष्ठित 1 करो । मैं तो कहता हूँ, मै अपनेसे कहूँगा, 'मेरे लिए पहले से वह मंदिर है, मुझे तो मूर्ति भी वहाँ पानी है । लेकिन, तुम इस नये यत्नमें 'रंभा'को, या किसी औौरकी मूर्ति या मंदिरको, तोड़नेकी ज़िद रखना ज़रूरी न समझो। इससे तुम्हारा ही अपकार होगा । ' ३२ 1
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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