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________________ कला क्या है? है और समझ जैसे गड़बड़में पड़ जाती है। हर क्षेत्रमें श्रमी नीचे है, आलोचक ऊपर है । साहित्यमें स्रष्टा सृष्टि करेगा, आलोचक राज्य करेगा । समाजके क्षेत्रमें दंभी चौधरी बनेगा, धार्मिक पामाल होगा। राजनीतिके क्षेत्रमें वालंटियर सच्चा होगा, नेता सच्चेसे अधिक नीतिज्ञ होगा। ऊपरसे देखनेसे यह स्थिति मनुष्यको नास्तिक बना सकती है। नास्तिकसे अभिप्राय है श्रद्धाशून्य,-Faithless, संदेहग्रस्त । किन्तु, श्रद्धावानके लिए तो विचलित होनेकी बात कभी कुछ है ही नहीं । यह समस्त सामग्री आस्तिककी तो आस्तिकता ही बढ़ाती है, श्रद्धालुकी श्रद्धाको पुष्ट करती है। उसे कुछ और अधिक प्रबुद्ध और जाग्रत् ही करती है। ___ जो ऊपरसे देखता है वह क्रुद्ध हो रहता है,—विद्रोही, और विप्लवी बन जाता है । वह अन्तमे कहता है, 'असत्य ही सत्य है। मै ही परमेश्वर हूँ। जो दीखता है, उसे छोड़ और कोई सत्य नहीं है।' वह कहता है, 'मनुष्यकी ही जय है । हाँ, शक्ति ही नीति है।' अहंकार उसके जीवनका मूल मंत्र बनता है। किन्तु, विश्वासीको तो पत्ते पत्तेमें, घटना घटनामें, पल पलके भीतर यही ज्वलंतरूपमें लिखा हुआ दीखता है--सत्यमेव जयते नानृतम् । जब क्रूर संतकी छातीपर पैर रखकर दर्पकी हँसी हँसता है तब भी वह श्रद्धावान् संत यही देखता है-सत्यमेव जयते नानृतम् । हिरण्यकशिपुकी नियोजित हर विपदाकी गोदमे बालक प्रह्लादको यही दीखा कि इस सबमें भी उसके प्रभु रामचन्द्र ही है । कशिपुके नाश और प्रह्लादके उद्धारकी बात तो उस पुनीत कथाका अंत है,उस कथाके मर्मका बखान तो प्रहादकी वज्र-श्रद्धामें ही होता है। २३
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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