SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पैसा खर्चके लिए नहीं है। पैसा संवर्धनके लिए है। संवर्धन, यानी जीवन-संवर्धन । धनका व्यय जहाँ संवर्धनोन्मुख नहीं है, वहाँ वह असामाजिक है, अतः पाप है । विलासोन्मुख व्ययसे सम्पत्ति नहीं; दीनता बढ़ती है। ___धनमें गृद्धि उस धनकी उपयोगिताको कम करती है। प्रतिफलमें हमारी गरज जितनी कम होगी, उतना ही हमारी और उसके बीच फासला होगा। उस फासलेके कारण वह फल उतना ही बृहद् और मानवके उद्यमद्वारा वह उतना ही गुणानुगुणित होता जायगा । वही गम्भीर और सत्य व्यवसाय है जहाँ कर्मका और व्ययका प्रतिफल दूर होते होते अन्तिम उद्देश्यमें अभिन्न, अपृथक् हो जाता है, जहाँ इस भाँति फलाकांक्षा है ही नहीं । विज्ञानके, व्यवसायके और अन्य क्षेत्रोके महान् पुरुष वे हुए हैं, जिन्होंने तात्कालिक लामसे आगेकी बात देखी, जिन्होंने मूल-तत्त्व पकड़ा और जीवनको दायित्वकी भाँति समझा, जिन्होंने नहीं चाहा विलास, नहीं चाहा आराम, जिन्होने सुखकी ऐसे ही परवाह नहीं की, जैसे दुखकी । उनका तमाम जीवन ही एक प्रकारको पूजी, एक प्रकारकी समिधा बन गया। उनका जीवन बीता नही,वह हविष्य बना और सार्थक हुआ। क्योकि वे एक विचारके प्रति, आदर्शक प्रति, एक उद्देश्यके प्रति, समर्पित हुए। अर्थशास्त्रके गणितको फैलाकर भी हम किसी और तत्त्व तक नहीं पहुंच पाते। यों अर्थशास्त्र अपने आपमें सम्पूर्ण स्वाधीन विज्ञान नहीं है । वह एकाकी स्वतन्त्र नहीं है। अब वह अधिकाधिक राजनातिगत है, पॉलिटिक्स है। पॉलिटिक्स अधिकाधिक १९८
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy