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________________ व्यवसायका सत्य समाज-शास्त्र (Social science ) है । समाज-शास्त्र अधिकाधिक मानस-शास्त्र (Psychology) से सापेक्ष्य होता जाता है। मानस-शास्त्रकी भी फिर अपने आपमें स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। क्योंकि, व्यक्ति फिर समाजमें है और जो कुछ वह अब है, उसमें समाजकी तात्कालिक और तादेशिक स्थितिका भी हाथ है । इस तरह फिर वह मानस-शास्त्र, प्राणि-शास्त्र और समाज-शास्त्र आदिपर अन्तरअवलम्बित है। आदि। अर्थ-शास्त्रके आंकिक सवाल बनाने और निकालनेमें हम उसके चारों ओर कोई बन्द दायरा न खड़ा कर लें। ऐसे हम उसी चक्करके भीतर चक्कर काटते रहेंगे, और कुछ न होगा। यह ठीक नहीं है । यह उस विज्ञानको सत्यकी समस्ततासे तोडकर उसे मुरमा डालनेके समान है। ऊपर हमने देखा है कि व्यावहारिक रुपये-पैसके उपयोगका नियामक तत्त्व लगभग वही है, जो गीताका अध्यात्म मन्त्र हैअनासक्ति, निष्कामता । इस निष्कामताकी नीतिसे कर्मका प्रतिफल नष्ट नहीं होता, न वह ह्रस्व होता है। प्रत्युत्, इस भाँति, उसके तो असंख्य गुणित होनेकी सम्भावना हो जाती है। अत्यन्त व्यावहारिक व्यवहारमें यदि वह तत्त्व सिद्ध नहीं होता है जो कि अध्यात्मका तत्त्व कहा जाता है, तो मान लेना चाहिए कि वह अध्यात्म असिद्ध है, अ-यथार्थ है । अध्यात्म नहीं चाहिए, पर व्यवहार तो हमें चाहिए । व्यवहार-असङ्गत अध्यात्मका क्या करना है। वह निकम्मा है। गीतामे भी तो कहा है-'योगः कर्मसु कौशलं ।' इस दृष्टिसे व्यक्ति न कह पायेगा कि सम्पत्ति उसकी है। इसमें
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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