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________________ व्यवसायका सत्य और हर एक व्यवसायी गहरा और अधिकाधिक होशियार व्यवसायी बने। हम यह देखते हैं कि व्यवसायी ही है जो मालदार है । यह अहैतुक नहीं है। यह भी हम जान रक्खें कि कोई महापुरुष, ऊँचा पुरुष अव्यवसायी नहीं होता; हाँ, वह जरा ऊँचा व्यवसायी होता है। यहाँ हम यही दिखाना चाहते है कि दुनियामें अच्छेसे अच्छा सौदा करना चाहिए। कोई हरज नहीं अगर दुनियाको हाट ही समझा जाय । लेकिन जिसके बारेमें एक भक्त कविकी यह उक्ति उलहने में कहीं जा सके कि उसने ‘कौड़ीको तो खूब सँभाला, लाल रतनको छोड़ दिया । . उस आदमीको बता देना होगा कि लाल रतन क्या है और क्यों कौड़ीसे उसे सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । हमारी गरज़ आँखोंको बाँध देती है । ईश्वरकी ओरसे मनुष्यकी अज्ञानताके लिए बहुत सुबिधा है। बहुत कुछ है जहाँ वह भरमा रह सकता है। लेकिन भ्रमनेसे क्या बनेगा ! हम अपने ही चक्कर में पड़े है। जैसे फुलझड़ी जलाकर हम रङ्ग-बिरङ्गी चिनगारियाँ देखते हुए खुश हो सकते है, वैसे ही अगर चाहें तो अपनी ज़िन्दगी में आग लगाकर दूसरोंके तमाशेका साधन बन सकते है। लेकिन पैसेका यही उपयोग नहीं है कि उसकी फुलझड़ी खरीदी जाय, न जीवनका उपयोग ऐश और विलास है । धन सञ्चयसे अपना सामर्थ्य नहीं बढ़ता । —धनका भी सामर्थ्य कम होता है, अपना भी सामर्थ्य कम होता है । इनर्जीको पेटके नीचे रखकर है । ऐसे विस्फोट न होगा, तो क्या होगा ? सोनेमें कुशल नहीं १९७
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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