SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करनेके लिए खर्च करता है। रुपयेके सहारे जितना अधिक श्रमउत्पादन किया जाय, उतनी ही उस रुपयेकी सार्थकता है। . हमने ऊपर देखा कि पैसेका पूँजी" बन जाना और खर्चका इन्वेस्टमेण्ट हो जाना उसके प्रतिफलसे अपना . यथासाध्य अन्तरं रखनेका नाम है । स्पष्ट है कि वैसे फासलेके लिए किसी कदर बेगरज़ीकी जरूरत है। मनुष्यकी गरज़ उसे दूरदर्शी नहीं होने देती । गरजमन्द पैसेके मामलेमें सच्चा बुद्धिमान् नहीं हो सका । हम यह भी देख सकेंगे कि मनुष्य और उसकी ज़रूरतोंके बीचमें जितना निस्पृहताका सम्बन्ध है, उतना ही वह अपने इन्वेस्टमेण्टके बारेमें गहरा हो सकता है । जो आकांक्षा-त्रस्त है, विषय-प्रवृत्त है, वह रुपयेके चक्रको तङ्ग और सङ्कीर्ण करता है। वह समाजकी सम्पत्तिका हास करता है । वह इनर्जीको रोकता है और, इस तरह, विस्फोटके .साधन प्रस्तुत करता है। प्रवाही वस्तु प्रवाहमें स्वच्छ रहती है। शरीरमे खून कहीं रुक जाय तो शरीर-नाश अवश्यम्भावी है। जो रुपयेके प्रवाहके तटपर रहकर उसके उपयोगसे अपनेको. स्वस्थ और सश्रम बनानेकी जगह उस प्रवाही द्रव्यको अपनेमें खींचकर सञ्चित कर रखना चाहता है वह मूढ़ताका काम करता है। वह उसकी उपयोगिताका हनन करता और अपनी मौतको पास बुलाता है। ___ आदर्श अलग। हम यहाँ व्यवहारकी बात करते है, उपयोगिताकी बात करते हैं। दुनिया क्यों न स्वार्थी हो ! हम भी स्वार्थकी ही बात करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति क्यों न समृद्ध बने ! यहाँ भी उसी समृद्धिकी बात है। हम चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति व्यवसायी हो.
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy