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________________ अगर उन्हें बढ़ने दिया जाय तो वे आदमीकी जिन्दगीको असंभव बना दे । फिर बढ़कर या तो वे भूखे मरे, जो कि निर्दयता होगी, नही तो वे दुनियाकी खाद्य सामग्रीको खुद खा-खाकर पूरा कर देंगे और फूलते जायेंगे । ऐसे दुनियाका काम कैसे चल सकता है ! इसलिए, मांस खाना लाज़िम है। __यह लाज़िम होनेकी बात वह जानें। लेकिन, मानव-प्राणियों के प्रति दयाई होकर वकरोंको खा जाना होगा, यह बात मेरी समझमें नहीं आई। पर उनकी दलीलका उत्तर क्या होगा ? उत्तर न भी बने, पर यह निश्चित है कि वह दलील सही नहीं है, क्योंकि उसका परिणाम अशुद्ध है। मानव-तर्क अपूर्ण है और मैं कभी नहीं समझता कि उस तलके तोके आधारपर आमिष अथवा निरामिष भोजनका प्रचार-प्रतिपादन हो सकता है। 'अहं' को केंद्र और औचित्य-प्रदाता मानकर चलनेमें बड़ी भूल यह है कि हम बिसार देते है कि दूसरेमें भी किसी प्रकारका अपना 'अहं' हो सकता है। हम अपनी इच्छाओंका दूसरेपर आरोप करते हैं और जब इसमें अकृतार्थ होते हैं तो झीकते-झल्लाते है । असलमें यह हमारा एक तरहका बचपन ही है । हमारा मन रखनेके लिए तमाम सृष्टिकी रचना नहीं हुई है और हम अपना मन सब जगह अटकाते है !--ऐसे दुख न उपजे तो क्या हो ! छुटपनकी बात है । तब हमने पाठशालामें सीखा ही सीखा था कि धरती नारंगीके माफ़िक गोल है । सोचा करते थे कि इस तरह तो अमरीका हमारे पैरोंके नीचे है और हमको बड़ा अचरज होता था कि अमरीकाके लोग उल्टे कैसे चलते होंगे ? वे गिर क्यों नहीं
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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