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________________ मै अगर इस चीजसे इनकार कर दूँ और फल भुगतनेको प्रस्तुत हो जाऊँ, तो इसमें क्या अनीति है ? क्या यह प्रयुक्त हो !..... इतनेमे मुंशीजी ने कहा कि उनको और भी काम हैं । मैं जल्दी 1 फरमा दूँ कि चेक ठीक किस रोज भेज दिया जायगा । ठीक तारीख मैं फरमा दूँ जिससे कि— ( मैने सोचा ) यह मुंशीजी इतने जोरके साथ अपनी विनय आखिर किस भाँति और किस वास्ते थामे हुए है ? प्रतीत होता है कि अब उनकी विनयकी वाणीमे कुछ कुछ उनके सरकारानुमोदित अधिकार- गर्वकी सव्यङ्ग मिठास भी आ मिली है । मैंने कहा न, 1 कि मुंशीजी बहुत भले आदमी है। यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि पैसेके वकील और सरकार के सवेतन कर्मचारियोंके बलसे वह मेरा लोटा-थाली कुर्क करा सकते है, यह जानते हुए भी (-या, ही) वह विनय- लज्जित है । मै जानता हूँ कि कर्तव्यके समय वह कटिबद्ध भी दीखेंगे, फिर भी मेरा उनमें इतना विश्वास है कि मै कह सकता हूँ कि उस समय भी अपनी लज्जाको और अपने तकल्लुफको वह छोड़ेंगे नहीं । इसीका नाम वजेदारी है । I मैंने कहा - मुंशी साहब, आपको तकलीफ हुई । लेकिन अभी 1 । तो मेरे पास कुछ नहीं है । - तो कब तक भिजबा दीजिएगा ? मैंने कहा— आप ही बताइए कि ठीक ठीक मैं क्या कह सकता हूँ । बोले तो ? 'तो' का मेरे पास क्या जवाब था । मैंने चाहा कि हँसूँ । १७०
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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