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________________ समझेगी, वह सबको बराबरीमे हुवा देगी। नींदमें फिर स्वप्न आयेगे और वे, मनुष्यकी वाधा मिटाकर, उसे जहाँ वह चाहें, ले जायेंगे । रातको जब आदमी सोयेगा, तव प्रकृति उसे थपकेगी । आदमी दिन-भर अपने बीचमें खड़े किये विभेदोके झगड़ोंसे झगड़कर जब हारेगा और हारकर सोयेगा, तब उसकी बन्द पलकोपर प्रकृति स्वप्न लहरायेगी । उन स्वप्नोंमे रङ्क सोनेके महलोंमे वास करे तो कोई राजा उसे रोकने नहीं आयेगा । वह वहाँ सब सुख -सम्भोग पायेगा । राजा अगर उन स्वप्नोंमे सङ्कटके मुँहमें पड़ेगा और क्लेश भोगेगा तो कोई चाटुकार उसे इससे बचा नहीं सकेगा । राजा, अपनी आत्माको लेकर, मात्र स्वयं होकर ही अपनी नींद पायेगा । तब वह है और उसके भीतरका अव्यक्त है । तव वह राजा कहाँ है ? — मात्र वेचारा 1 है । इसी प्रकार नींदमे वह रङ्क भी मात्र अपनी यात्माके सम्मुख हो रहेगा । तब वह है और उसमे सन्निहित व्यक्त है । तब वह बेचारा कहाँ रङ्क है ! वह तब प्रकृत रूपमे जो है, वही है।. उस रात्रिकी निस्तब्धतामे, प्रकाशके महाशून्यमे और प्रकृतिकी चौकसीमें अपनी मानवीय अस्मिताको खोकर, सौंपकर मानव, शिशु बनकर, सो जाता है। पर फिर दिन ध्याता है। तब आदमी कहता है कि वह जाग्रत् है । वह कहता है कि तब वह सावधान है । और जाग्रत् और सावधान बनकर वह मानव कहता है कि मानवतामें श्रेणियाँ है, भेद तो मिथ्या स्वप्न था, सार अथवा सत्य तो भेद है। तव वह कहता है कि मैं चेतन उतना नहीं हूं, जितना राजा हूँ अथवा रक हूँ । स्वप्नसे हमारा काम नहीं चलेगा, काम ज्ञानसे चलेगा । ज्ञानका सच्चा नाम विज्ञान है । और वह विज्ञान यह है कि 1 १६४
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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