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जरूरी भेदाभेद
तारे उस नीले शून्यमें गहरेसे गहरे पैठे हैं । जहाँतक नीलिमा है, वहाँ तक वे है । यह स्वर्ण- करणोसे भरा नीला नीला क्या है ? आकाश क्या है ? समय क्या है ? मै क्या हूँ ? - पर जो हो, मै आनन्दमें हूँ । इस समय तो मेरी अज्ञानता ही सबसे बड़ा ज्ञान है । मैं कुछ नहीं जानता, यही मेरी स्वतन्त्रता है । ज्ञानका बन्धन मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए । तारोका अर्थ मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए। मुझे उनका तारा-पन ही सब है, वही बस है । मैं उन्हें तारे ही समझँगा, तारे बनाकर मै उनमें अपनापन, अपना मन भिगोये रखता हूँ । मुझे नहीं चाहिए कोई ज्ञान । उस समस्तके आगे तो मै बस इतना ही चाहता हूँ कि मै सारे रोम खोलकर प्रस्तुत हो रहूँ। चारों ओर अपनेको छोड़ दूँ और भीतरसे अपनेको रिक्त कर दूँ कि यह निस्सीमता, यह समस्तता बिना बाधाके मुझे छुए और मेरे भीतर भर जाय ।
लोग सो रहे है । रात बीत रही है। मुझे नींद नहीं है । और लोग भी होंगे, जिन्हें नींद न होगी । वे राजा भी हो सकते है, रङ्क भी हो सकते हैं। अरे राजा क्या, रङ्क क्या ! नींदके सामने कोई क्या है ? किसकी नींदको कौन रोक सकता है ! आदमी अपनी नींदको आप ही रोक सकता है। दुनियामें भेद - विभेद है, नियम कानून हैं । पर भेद - विभेद कितने ही हो, नियम-कानून कैसे ही हो, रात रात है । जो नहीं सोते वे नहीं सोते, पर रात सबको सुलाती है । सब भेद-प्रभेद भी सो जाते है, नियम-कानून भी सो जाते हैं । रातमें रङ्ककी नींद राजा नहीं छीनेगा और राजाकी नींद भी रङ्ककी नींदसे प्यारी नहीं हो सकेगी। नींद सबको बराबर
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