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________________ जरूरी भेदाभेद मैया तो गरीब हूँ या अमीर हूँ । दिनमे क्या अब उसने आँखें नही खोल ली है ? दिनमें क्या वह चीजोंको अधिक नहीं पहचानता है ? दिन रातकी तरह अँधेरा नही है; वह उजला है । तारे अँधेरेका सत्य हो, पर जाप्रत् अवस्थामे क्या वे झूठ नहीं है ! देखो न, कैसे दिनके उजालेमे भाग छिपे है ! जाग्रत् दिनके सत्यको कौन त्याग सकता है ? वही अचल सत्य है, वही ठोस सत्य है । और वह सत्य यह है कि तारे नही है, हम है । हमी है और हम जाग्रत् है । और सामने हमारे हमारी समस्याएँ है । अतः मनुष्य कर्म करेगा, वह युद्ध करेगा, वह तर्क करेगा, वह जानेगा । नीद ग़लत है और स्वम भ्रम है | यह दुःखप्रद है कि मानव सोता है और सोना अमानवता है। अँधेरी रात क्या गलत ही नहीं है कि जिसका सहारा लेकर आसमान तारोंसे चमक जाता है, और दुनिया धुंधली हो जाती है ? हमे चारों ओर धूप चाहिए, धूप जिससे हमारे आसपासका छुट- बड़पन चमक उठे और दूरकी सब आसमानी व्यर्थता लुप्त हो जाय । मैं जानता हूँ, यह ठीक है । ठीक ही कैसे नहीं है ? लेकिन क्या यह भूल भी नहीं है ? और भूलपर स्थापित होनेसे क्या सर्वथा भूल ही नहीं है ? क्या यह ग़लत है कि नींदसे हम ताजा होते हैं और दिन-भरकी हमारी थकान खो जाती है ? क्या यह गलत है कि हम प्रभातमे जब जीतने और जीनेके लिए उद्यत होते है, तब सन्ध्यानन्तर नींद चाहते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि स्वप्नोंमें हम अपनी थकान खोते है, और फिर उन्हीं स्वप्मोकी राह अपने ताजगी भी भरते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि दिनमे हम व्यक्तके साथ इतने जड़ित और अव्यक्तके प्रति इतने जड़ होते है कि रातमें अव्यक्त, १६५
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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