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जनगानन
एक नन्त्र ग्रन्थ बन जाएगा और प्रस्तुत स्वनाकी समस्त परिविक्री आन्नसात न लेगा। विशेष जिनामुनाको प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टमन्त्री प्राप्नपरीक्षा आदि जैन न्याय नय दर्शनके ग्रन्योंका परिगालन करना चाहिए याग नो गेमा वित्रा होता है कि कबादी माहियानी सम्यक प्रकार मनन और त्रिन्नन किया जाए तो उसीमें इन ऋतकां निद्ध कग्नवाली पर्याप्त मामग्री प्राप्त होगी कि परमात्मा मन् चिन् + आनन्द चदाई। जगत्वा उद्धार करने और धर्मका संस्थान ऋग्नं लिए अनार धारण करनेत्राले, कवि वेदव्यामक्री गीताके नव जुना श्रीकृगवन्नकी वार्गाने ही यह मन्य प्रकट होता है कि'ग्लान्मा न लांकला का है, और न क्रमं अथवा क्रमालाका सयोग
गांगला है : कृति ही इस प्रकार प्रवृनि करती है, वह परमात्मा पर या पुज्यका अम्हाग भी नहीं कन्ना। भानपर अजानका आवरण ला है इसलिए गागी विन्ध बन जाते है।
मन्जन जो रचे तो मुशरस मी कोन कान,
दुष्ट जीव क्रिये काल-कट मों कहा रही। माना निरमापं फिर बापे क्यों कल्प-न्य, __ याचा विचारे लघु तृण हू ते है सही। इट के संयोग त म सोरों धनसार कर,
जगन का ख्याल इन्द्रजाल सम है वही। एयी होग-दोन बान बी विधि एक हो यो, काहे को बनाई मेरे घोखो मन है यही॥८०॥
जनयतक। १ नानिक प्रभाबन्द्राचार्य । २आबा विद्यानन्दि। ३ “न त्वं न कर्माणि लोकम्य पृजति प्रभुः ।
न कर्मफलमयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। नाउने कस्यचिन् पापं न चंब मुहतं विभुः। अजाननानं नानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥"-गीता ५-१४,१५