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जैनशासन
कायोंसे आत्मीय पवित्रताका प्रादुर्भाव होता है इसलिए उन्हें भी उपचारसे धर्म कहा जाता है । यहा धर्मके साधनोमे साध्यरूप धर्मका उपचार किया जाता है । उस आत्म-धर्मकी अथवा उस आत्म-निर्मलताकी उपलब्धिके लिए आत्माकी अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्दके विषयमें अखण्ड आत्मश्रद्धा, अनात्मपदार्थोंसे आत्मज्योतिका विश्लेपण करनेवाला आत्म-वोध तथा अपने स्वाभाविक आनन्द-स्वरूपमें तल्लीनता रूप आत्मनिष्ठाकी हमें नितान्त आवश्यकता है । इन तीन गुणोके पूर्ण विकसित होने पर यह आत्मा सम्पूर्ण दु.खोसे मुक्त हो जाता है । इस अवस्थाको ही निर्वाण या मुक्ति कहते है । महापण्डित आशाधरने वडे मार्मिक शब्दोमे धर्मके स्वरूपको चित्रित किया है
"धर्मः पुसो विशुद्धिः सा च सुदृगवगमचारित्ररूपा " आत्माकी विशुद्ध मनोवृत्ति- सत्य श्रद्धा, सत्य-ज्ञान तथा सत्याचरण रूप परिणति - धर्म है । (अनगारधर्मामृत १,९० )
धर्मके नामसे रुष्ट होनेवाले व्यक्तियोको इस आत्म-निर्मलता रूप पुण्य तथा परिपूर्ण जीवनकी ओर व्यक्ति तथा समाजको पहुँचाने वाले
दुर्भाग्यसे श्रथवा कल्पनाके सहारे यदि कोई चिन्तक विश्व-नियंतानिर्मित पुस्तकोके ध्वंस अथवा प्रभावकी अवस्थाका अनुमान करे तो उसे यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रन्योसे सम्बन्धित “किताबी" कहे जाने वाल धर्मोकी बहुत बड़ी संख्या अदृश्य हो जायगी, उनका अस्तित्व नही मिलेगा। किन्तु 'वस्तु-स्वभाव' रूप सुदृढ शिलापर अवस्थित धर्म सदा अपना अस्तित्व बनाये रहेगा। कदाचित् इसका सारा साहित्य लुप्त हो जाये, तो भी प्रकृतिकी अविनाशी पुस्तकको पढ़कर विवेकी मानव इस प्राकृतिक धर्मके मनोरम मन्दिरका क्षणमात्रमें पुनर्निर्माण कर सकेगा। इसलिए कहना होगा कि ऐसे प्रकृतिको गोदमें पले हुए धर्मको कालबलि कभी भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता । यथार्थमें सनातनत्वके सच्चे बीज ऐसे धर्ममें ही मानना तर्क - सगत होगा ।