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धर्म और उसकी आवश्यकता
१५.
उसी प्रकार अहिंसा, मृदुता, सरलता आदि गुणयुक्त अवस्थाएँ आत्मामे स्थायी रूपमें पायी जा सकती है। इस स्वाभाविक अवस्थाके लिए बाह्य अनात्म पदार्थकी आवश्यकता नही रहती, क्रोधादि विभावो अथवा विकारोंकी वात दूसरी है। इन विकारोंको जाग्रत तथा उत्तेजित करने के लिए बाह्य सामग्रीकी आवश्यकता पड़ती है। वाह्य साधनोके अभाव में क्रोधादि विकारोका विलय हो जाता है । कोई व्यक्ति चाहनेपर भी निरन्तर क्रोधी नही रह सकता । कुछ कालके पश्चात् शान्त भावका आविर्भाव हुए विना नही रहेगा। आत्माके स्वभावमे ऐसी बात नही है । यह आत्मा सदा क्षमा, ब्रह्मचर्य, सयम आदि गुणोसे भूषित रह सकता है। इसलिए, क्रोध - मान-माया - लोभ, राग-द्वेप-मोह आदिको अथवा उनके कारणभूत साधनोको अधर्म कहना होगा। आत्माके क्षमा, अपरिग्रह, आर्जव आदि भावो तथा उनके साधनोको धर्म मानना होगा, क्योकि वे आत्माके निजी भाव है । "
सात्त्विक आहार-विहार, सत्पुरुषोकी सगति, वीरोपासना आदि
१ - भारतीय धर्मोका अथवा विश्वके प्रायः सभी धर्मोका अध्ययन करनेसे ज्ञात होगा कि उन धर्मोकी प्रामाणिकताका कारण यह है कि परमात्मान उस धर्मके मान्य सिद्धान्तोको बतानेवाले ग्रन्थकी स्वयं रचना की है । जब परमात्मा जैसे परम आदर्शने अपनी पुस्तक द्वारा कल्याणका मार्ग बताया, तब उसे अ- प्रामाणिक कहनेका कौन साहस करेगा ! हां, एक प्रबल तर्क इस मान्यताकी जड़को शिथिल कर देता है कि यदि परमात्माने किताब बनाकर दी या भेजी तो उन पुस्तकोंमें पूर्णतया परस्पर सामंजस्य होना चाहिए था । वेद, कुरान, बाइबिल आदि ईश्वरकृत रचनानोमें निष्पक्ष अध्येताओंको सहज सामंजस्य नहीं दीखता। इसीलिए तो ईश्वरका नाम ले-लेकर और उनकी कथित पुस्तकके अवतरण देकर एक दूसरेको झूठा कहते हुए अपनेको सच्चा समझकर संतुष्ट होते है। ईश्वरके सम्बन्ध विशेष प्रकाश हम आगे स्वतंत्र अध्यायमें डालेंगे ।