________________
४१८
जैनशासन
उनकी धारणा है कि ससारमे दुर्बल मनुष्योका सहार करके ही वे योग्य बनते है।
शान्तिके उपासकोकी संख्या या प्रभाव इतना अल्प है, कि वे आजके कूटनीतिज्ञोके छल-प्रपचके विरुद्ध कुछ भी महत्त्वपूर्ण कार्य नही कर सकते। धन और सत्ताके बलपर सत्यका द्वार प्राय अवरुद्ध रहा करता है। वे सत्ताधीग शिकारीकी मनोभावनावाले कही भी जाते है और दूसरोकी दुर्वलताओसे लाभ उठा प्रजातन्त्र, जनतन्त्र, साम्राज्यवाद, साम्यवाद आदि मोहक सिद्धान्तोके नामपर वडे-बडे देशोको हजम कर लेते है, जैसे व्याघ्र गायको स्वाहा कर देता है। ऐसी व्याघवृत्तिवाले राष्ट्रो या उनके नेताओ के कारण विश्वशान्तिपरिषद् League of Nations प्राय विनोदजनक ही रही। वडे-बडे सम्मेलन पवित्र उद्देश्योंके सरक्षण तथा बृहत् मानवजातिमे वन्धुत्व स्थापनार्थ किए जाते है, किन्तु शिकारीभावना-समन्वित प्रमुख पुरुषोके प्रभाववश अंधेके रस्सी बँटने और वकरी द्वारा बँटी रस्सीके चरे जाने जैसी समस्या हुआ करती है। __पश्चिममें विज्ञानने ईश्वरके अस्तित्वको माननेमे अस्वीकृति व्यक्त । की, जडतत्त्वको ही सब कुछ बताया ; इस शिक्षणके कारण धार्मिक द्वन्द्वो की तो समाप्ति हो गई, किन्तु पूर्वके देशोने धार्मिक अत्याचारोके कार्योको अक्षुण्ण जारी रखा है। पश्चिममे धर्मान्धताके अन्त होनेका यह परिणाम नहीं हुआ, कि विशुद्ध धार्मिक दृप्टिवाले सत्पुरुपोका विकास हुआ हो। विश्वविद्यालयोकी शिक्षाने ऐसे अनाध्यात्मिक व्यक्तियोकी नवीन सृष्टि की, जो अपना सानद अस्तित्व तथा समृद्धिको चाहते है। इसमे वाधा आती हो, तो उसे निवारण करनेके लिए वे कितने भी मनुष्योको यममन्दिरमें भेजनेको तैयार है। पशुओको तो वे वेजबान होनेके कारण वेजान मानते है। वास्तव दृष्टिसे देखा जाय, तो आत्मतत्त्व अविनाशी है। इससे आदर्श की रक्षा करते हुए मृत्युके मुखमे प्रवेश करना कोई बुरा नही है। सोमदेवसूरि कहते है