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विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ४१६ "कण्ठगतैरपि प्राण शुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ॥"
-नी वा० ३७, २०॥ उत्कृष्ट वुद्धिवाले व्यक्तियोको कण्ठगत प्राण होनेपर भी निन्दनीय कार्य नहीं करना चाहिए। ___ यह है भारतीय पवित्र आदर्श । जडवादी प्राणरक्षाके नामपर जगत् भरके सहारको उद्यत होता है, तो आदर्शवादी आध्यात्मिक अपने ध्येयकी रक्षार्थ जीवनका भी मोह नहीं करता है । भोगासक्त ससारको महर्षि कुन्दकुन्दकी चेतावनी ध्यान रखनी चाहिए।
"एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्वलोहेण । णिरयतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुजदे एक्को ॥ १५॥"
-वारहअणुवेक्खा । यह जीव, पाच इन्द्रियोंके विपयोके अधीन हो तीन लालसापूर्वक पापोको अकेला करता है और 'अकेला' ही उनका फल भोगता है।
महाकवि वाल्मीकि अपने जीवनके पूर्व भागमे महान् लुटेरा डाकू था। एक वार उसकी दृष्टिमे उपरोक्त तत्त्व लाया गया, कि तुम्हारा उकतीसे प्राप्त धन सब कुटुम्बी सानन्द उपभोग करते है, किन्तु वे इस पापमे भागीदार नहीं होगे ; फल तुम्हे ही अकेले भोगना पडेगा। वाल्मीकि ने अपने कुटुम्बमें जाकर परीक्षण किया, तो उसे ज्ञात हुआ, कि पापका बँटवारा करनेको माल उड़ानेवाले कुटुम्बी लोग तैयार नहीं है। इसने डावू वाल्मीकिके हृदय-चक्षु खोल दिए और उसने डाकूका जीवन छोडकर ऐसी सुन्दर जिन्दगी बना ली, कि अवतक जगत् रामायणके रचयिताके रूपमे उस महाकविको स्मरण करता है। ___ इस युगके साम्राज्यवादी, डिक्टेटर अथवा भिन्न-भिन्न राजनैतिक विचारधारा वालोको भी यह नग्न सत्य हृदयंगम करना चाहिए, कि आज परिस्थिति अथवा विशेप साधनवा उनके हाथमे सत्ता है, वल है और इससे वे मनमाने रूपमे शिकारीके समान दीन-हीन, अशिक्षित अथवा