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विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म
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महत्त्वाकाक्षाकी पुष्टिकी लालसानिमित्त क्षणभरमे अपना जीवन खो बैठे। कितना बडा अन्धेर है । कुछ जननायकोके चित्तको सतुष्ट करनेके लिए अन्य देश अथवा राष्ट्रके वच्चो, महिलाओ आदिके जीवनका कोई भी मूल्य नहीं है। वे क्षणमात्रमे मौतके घाट उतार दिए जाते है । यह कृत्य अत्यन्त सभ्योके द्वारा सपादित किया जाता है।
सम्राट अशोकने अपनी कलिंगविजयमे जव लाखसे ऊपर मनुप्योकी मृत्युका भीषण दृश्य देखा, तो उस चण्डाशोककी आत्मामे अनुकम्पाका उदय हुआ। उस दिनसे उसने जगत् भरमें अहिसा, प्रेम, सेवा आदिके उज्ज्वल भाव उत्पन्न करनेमें अपना और अपने विशाल साम्राज्यकी गक्ति का उपयोग किया। अगोकके गिलालेखकी सूचना न० १३ मे अपने वशजोके लिए यह स्वर्ण शिक्षा दी थी-"वे यह न विचारे कि तलवारसे विजय करना विजय कहलानेके योग्य है । वे उसमे नाग और कठोरताके अतिरिक्त और कुछ न देखे। वे धर्मकी विजयको छोडकर और किसी प्रकारकी विजयको सच्ची विजय न समझे। ऐसी विजयका फल इहलोक तथा परलोकमे होता है।" किन्तु आजकी कथा निराली है। होरेगिमा द्वीपमे विपुल जनसहार होते हुए भी अमेरिकाकी आखोका खून नही उतरा
और न वहा पश्चात्तापका ही उदय हुआ। पश्चात्ताप हो भी क्यो, किसके लिए? आत्मा है क्या चीज? जवतक श्वास है, तव तक ही जीवन है। जो अपने रग तथा राष्ट्रीयताके है, उनका ही जीवन मूल्यवान् है; दूसरोका जीवन तो घासपातके समान है। यह तत्त्वज्ञान कहो, या इस नगेके कारण वडे राष्ट्र मानवताके मूल तत्त्वोका तनिक भी आदर करनेको तैयार नही होते । जहा तक विवाद ( debate ) का प्रसग है, वे मानवता, करुणा, विश्वप्रेमकी ऐसी मोहक चर्चा करेंगे, और अपने कामोमे इतनी नैतिकता दिखावेगे, कि नीति-विज्ञानके आचार्य भी चकित होगे, किन्तु अवसर पडने पर उनका आचरण उनके असली रूपको प्रकट कर देता है। रामायणमे वर्णित वकराजने पम्पा सरोवरके समीप रामचन्द्रजी सदृश महापुरुषको