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जैनशासन
समुन्नत है। यह बात भारत सरकारका रेकार्ड बतायगा, जिसके आधारपर एक उत्तरदायी सरकारी कर्मचारीने कहा था कि-"फौजदारीका अपराध करनेवालोमे जैनियोकी सख्या प्राय शून्य है।"
आज लोगो तथा राष्ट्रोका झुकाव स्वार्थपोषणकी ओर एकान्ततया हो गया है। 'समर्थको ही जीनेका अधिकार है, दुर्वलोको मृत्युकी गोदमे सदाके लिए सो जाना चाहिये', यह है इस युगकी आवाज। इसे ध्यानमे रखते हुए शक्ति तथा प्रभाव सम्पादनके लिए उचित-अनुचित, कर्तव्यअकर्तव्यका तनिक भी विवेक विना किए बल या छलके द्वारा राष्ट्र कथित उन्नतिकी दौडके लिए तैयारी करते है। हम ही सबसे आगे रहे, दूसरे चाहे जहा जावे, इस प्रतिस्पर्धा (नही नही, ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि) के कारण उच्चसिद्धान्तोकी वे उसी प्रकार घोषणा करते है, जैसे पचतत्रका वृद्ध व्याघ अपनेको वडा भारी अहिंसावती बता प्रत्येक पथिकसे कहता था-'इद सुवर्णकङ्कण गृह्यताम्। जिस प्रकार एक गरीव ब्राह्मण व्याघ्नके स्वरूपको भुला चक्करमे आ प्राणोंसे हाथ धो बैठा था, वैसे ही उच्च सिद्धांतोकी घोषणा करने वालोके फन्देमे लोग फंस जाते है, और अकथनीय विपत्तियोको उठाते है। आश्रितोका गोषण, अपनी श्रेष्ठताका अहकार, घृणा, तीन प्रतिहिसाकी भावना आदि वाते आजके प्रगतिगामी या उन्नतिशील राष्ट्रो के जीवनका आधार है। पारस्परिक सच्ची सहानुभूति, सहयोग, सेवा आदि वाते प्राय वाचनिक आश्वासनका विषय बन रही है। सर्वभक्षी भौतिकवादका अधिक विकास होनेके कारण पहले तो इनकी आखे विज्ञान के चमत्कारके आगे चकाचौध युक्त-सी हो गई थी, किन्तु एक नही, दो महायुद्धोने विज्ञानका उन्नत मस्तक नीचा कर दिया। जिस वुद्धिवैभवपर पहले गर्व किया जाता था, आज वह लज्जाका कारण वन गई। अणुवम (atom bomb) नामकी वस्तु इस प्रगतिशील विज्ञानकी अद्भुत देन है, जिसने अल्पकालमे लाखो जापानियोको स्वाहा कर दिया। लाखो बच्चे, स्त्री, असमर्थ पशु, पक्षी, जलचर आदि अमेरिकाकी राजकीय