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पुण्यानुवन्धी वाङ्मय
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११ ॥
तन ऊपर जम जोर है, 'जिनसों' जनहं डराय | तिनके पद जो सेइये, जमको कहा बसाय ॥ मैनासे तुम क्यों 'भए, 'मैं' नाते सिव होय । 'में' नांही वह ज्ञानमें, में न रूप निज जोय ॥ जैनी जाने जैन नै, जिन जिन जानी जैन । जे जे जैनी जैन जन, जानें निज निज नैन ॥ १२ ॥ चार माहि जौलों फिरे, वरे चारतों प्रोति । तौलों चार लखे नहीं, चार सूंट यह रोति ॥ १३ ॥ जे लागे दस वीस तों, ते तेरह पंचाल |
सोलह बासठ कीजिये, छांड चार को वास ॥ १४ ॥" मोहकी प्रगाढ निद्रामे मन्न ससारी प्राणीका कितना भावपूर्ण चित्र यहा अंकित किया गया है
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" काया चित्रशालामै करम परजंक भारी मायाकी संवारी तेज चादर कलपना । कायन करे चेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यहँ लोचनको ढपता ॥ उदै बल जोर यह श्वासको शवद घोर, विषय सुखकारी जाकी दोर यह सपना । ऐसे मूढ़ दशामें मगन रहे तिहु काल : घावे भून जालमें न पावे रूप अपना ॥"
ससारमे धन, वैभव, विक्रम प्रभाव बादि संपन्न पुरकी पूजा होती है, और ऐसी विशेषता तमलङ्कृत व्यक्तिका सन्मान किया जाता है । अलावा इनसे कोई पारमार्थिक हित संपन्न नहीं होना । जीवका यथार्थ कल्याण उम सदर भावनासे होता है, जिनके द्वारा कर्म बन्धन नहीं होता। इसी कारण कविवर मुगल शासकको प्रगाम न कर ज्ञान नम्राट् की इन मार्मिक शब्दों द्वारा अभिवन्दना करते हैं.