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जैनशासन
तेई भव-सागरके ऊपर हवै तरै जीव,
जिन्हको निवास स्यादवादके महलमें।" भैया भगवतीदासजीके ये दोहे कितने सरल, सरस तथा शान्तिरस पूर्ण है | कैसा भी मोहाकुल व्यक्ति हो, इनके द्वारा चैतन्यकी स्फूर्ति हुए बिना नहीं रहेगी। महाकवि आत्मदेवसे बात करते हुए ब्रह्मविलासमे कहते हैं
"चल चेतन तहं जाइये, जहां न राग विरोध । निज स्वभाव परकाशिये, कीजे आतम बोध ॥ १ ॥ तेरे बाग सुज्ञान है, निज गुण फूल विशाल । ताहि विलोकहु परम तुम, छांडि पाल जंजाल ॥ २ ॥ अहो जगतके राय, मानहु एती बीनती। त्यागहु पर परजाय, काहे भूले भरममें ॥ ३ ॥ तुम तो पूनो चंद, पूरन जोति सदा भरे। पड़े पराए फन्द, चेतहु चेतन राय जु ॥ ४ ॥ निज चन्दाकी चांदनी, जिह घटमें परकास। . तिहिं घटमे उद्योत ह वय, होय तिमिरको नास ॥ ५ ॥ जित देखत तित चांदनी, जब निज नयननि जोत । नैन मिचत पेखै नहीं, कौन चांदनी होत ॥ ६ ॥ या मायासे राचके, तुम जिन भूलहु हंस।
संगति याको त्यागके, चीन्हो अपनी अस ॥ ७ ॥" कविका यह कथन कितना उपयोगी है
"राग न कीजे जगत्में राग किए दुःख होय । देखहु कोकिल पीजर, गह डारत है लोय ॥ ८ ॥ त्याग बिना तिरबो नहीं, देखहुं हिये विचार । तूंबी लेपहि त्यागती, तब तर पहुंचे पार ॥ ६ ॥