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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
३७७ है, कि ग्रहण करनेकी इच्छा वालोकी अधोगति होती है और अग्रहणकी इच्छा वालोकी ऊर्ध्वगति होती है।' ___ कितना मार्मिक सर्वोपयोगी उदाहरण है यह , तराजूका वजनदार पलडा नीचे जाता है, जो परिग्रहधारियोके अधोगमनको सूचित करता है; और हल्का पलड़ा ऊपर उठता है, जो अल्पपरिग्रहवालोके ऊर्ध्वगमनकी ओर सकेत करता है।
गुणभद्र स्वामी उन लोगोको भी आत्मोद्धारका सुगम उपाय बताते है, जो तपश्चर्या के द्वारा अपने सुकुमार शरीरको क्लेश नहीं पहुंचाना चाहते है, अथवा जिनका गरीर यथार्थमे कष्ट सहन करनेमे असमर्थ है। वे कहते
__'तू कप्ट सहन करनेमे असमर्थ है, तो कठोर तपश्चर्या मत कर , किन्तु यदि तू अपनी मनोवृत्तिके द्वारा वश करने योग्य क्रोधादि शत्रुओको भी नही जीतता है, तो यह तेरी वेसमझी है।'
वास्तवमे मानसिक विकारो पर विजय ही सच्चा विकास और कल्याण है। मानसिक पवित्रताका विशुद्ध जीवनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । महाकवि बनारसीदासजी की वाणी कितनी प्रवोधपूर्ण है
"समुझे न ज्ञान, कहे करम किए सो मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहलमें। ज्ञान पक्ष गहे कहे पातमा प्रवन्ध सदा, वरते सुछन्द तेउ डूबे है चहलमें॥ जथायोग्य करम करें पै ममता न घरे,
रहें सावधान ज्ञान ध्यानको टहलमें। १ 'करोतु न चिरं घोरं तप क्लेशासहो भवान् । चित्तसाध्यान् कषायादीन् न जयेद्यत्तदाता ॥ २१२ ॥"
-प्रात्मानुशासन ।