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जैनशासन
वैभवका अधिपति भरत प्रभातमे जगते ही प्राची दिशाको अरुण वर्णयुक्त देख उसे जिनेन्द्र चरण कमलकी लालिमासे अनुरजित सोचता था,
और अपने प्रकाश द्वारा रात्रिके अन्धकारके उन्मूलनकारी सूर्यको देखकर उसे भगवान् वृषभनाथके कैवल्य सूर्यकी प्रतिबिम्बसे कल्पना करता था। वह जागते ही धर्मज्ञोके साथ धर्मके विषयमे अनुचिंतन करता था, पश्चात् अर्थ-काम-सपत्तिके विषयमे अमात्य वर्गके साथ विचार करता था। जहा वैभवकी वृद्धिमे साधारण मानव आत्माको पूर्णतया भूलकर कोल्हूके वैलकी जिन्दगीका अनुकरण करता है, वहा तत्त्वज्ञानी सम्राट् सदा धर्मकी प्रधान चिन्ता करते थे, कारण उसमे विचक्षणको विलक्षण आह्लाद प्राप्त होता है , इसके सिवाय उस मगलमय धर्मको शरणमे जानेसे सर्व कार्योकी अनायास सिद्धि भी होती है। इसीलिये भरतेश्वरके विषयमे महापुराणकार कहते है
"तथापि बहुचिन्त्यस्य धर्म चिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मे हि चिन्तिते सर्व चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ॥" ११४, ४१ ॥ प्रजापति नरेशकी धार्मिक अनुरक्तिके कारण जनतामे भी सदाचरण का विकास तथा धार्मिक जाग ति अनायास होती थी। यदि यह दृष्टि जनता के भाग्यविधाताओके जीवन अवतरित हो जाय, तो आजका सकटमय तथा कलकपूर्ण ससार नवीन कल्याणभूमि बन सकता है।
अपभ्रश भाषाके सुन्दर शास्त्र 'परमात्मप्रकाश' मे योगीन्द्रदेव लिखते है'-'शरीर-मन्दिरमे जो आदि तथा अन्तरहित एव केवलज्ञानरूप ज्योतिर्मय आत्मदेव विद्यमान है, वही यथार्थमे परमात्मा है।'
परमार्थ दृष्टिकी प्रधानतासे आचार्य कितनी मार्मिक बात कहते
१ "देहा देवलि जो वसइ, देउ अणाइ अणंतु ।
केवलणाणफुरंततणु,सो परमप्पु णिभंतु ॥"-८० प्र० ३३ ।