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पुण्यानुवन्धी वाड्मय
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है-"आत्मन् । अन्य तीर्थोकी यात्रा मत करो। अन्य गुरुकी सेवा भी अनावश्यक है। अन्य देवका चिंतन भी न करो। केवल अपनी निर्मल आत्माका ही आश्रय लो।' आचार्य कहते है-"यह आत्मा ही तो परमात्मा है। कर्मोदयके कारण वह आराध्यके स्थानमे आराधक बनता है। जब यह आत्मा अपनी ही आत्मामे स्वरूपका दर्शन करनेमें समर्थ होता है, तव यही परमात्मा हो जाता है।' ___राग अथवा स्नेहके कारण ही यह जीव अपने अनत, अक्षय आनदके भण्डारसे वचित हो दु खमय ससारमे परिभ्रमण करता है। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिये आचार्य तिलके उदाहरणको कितनी सुन्दरताके साथ उपस्थित करते है
३ देखो! तिलोका समुदाय स्नेह (तेल) के कारण जलसिंचन, पैरोके द्वारा कुचला जाना, एव पुन पुन पेले जानेकी पीडाका अनुभव करता है। स्नेह शब्द ममता तथा तेल इन दो अर्थोको द्योतित करता है। उनको ध्यानमे रखते हुए ही आचार्य महाराज समझाते है कि जैसे स्नेह के कारण तिलोका कुचला जाना तथा पेले जानेका कार्य किया जाता है, इसी प्रकार स्नेहके कारण यह जीव ससारकी अनत दु खाग्निमें निरतर जला करता है।'
अपने कृत्योके विपाकका उत्तरदायित्व प्रत्येक जीव पर है, अन्य व्यक्ति इसमे हिस्सा नही बटाते, इस सिद्धान्तको स्पष्ट करते हुए कवि
१ "अण्णुजि तित्थु म जाहि जिय, अण्णु जि गुरुन म सेवि ।
अण्णु जि देउ म चिति तुहु, अप्पा विमलु मुएनि ॥ ६६ ॥" २ “एहु जु अप्पा सो परमप्पा, कम्मविसेसे जायउ जप्पा।
जामइ जाणइ अप्पे अप्पा, तामइ सो जि वउ परमप्पा ॥ ३०५॥" ३ "जलसिंवणु पयणिद्दलणु, पुणु पुणु पोलण दुक्खु । णेहह लग्गवि तिलणियरु, जति सहतउ पिक्खु ॥ २४६ ॥"