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पुण्यानुवन्धी वाङ्मय
३७१ ___ इस आध्यात्मिक सत्यका प्रयोग भारतीय राजनीतिक क्षेत्रमे भी ज्योति प्रदान करता था। भारतीय हित और विदेशियोके कल्याणमें परस्पर सघर्ष था। अत जिन वातोसे भारतकी भलाई होती थी, उनसे विदेशियोके स्वार्थका विघात होता था, तथा जिनसे विदेशियोकी स्वार्थपुष्टि होती थी, उनसे स्वदेशका अहित होना अवश्यम्भावी था। ज्ञानार्णवकार प्रत्येक आत्माको अपरिमित शक्ति, आनन्द तथा ज्ञानका अक्षय भण्डार बताते हुए कहते है
___ "अनन्तवीर्यविज्ञान-दृगानन्दात्मकोऽप्यहम् ।"
आत्मविद्याकी उपलब्धिके विषयमे योगीश्वर पूज्यपादका कथन है:'जैसे जैसे स्वरूपके अवबोध का रस प्राप्त होने लगता है, वैसे वैसे प्राप्त हुए भी विषय-भोग अच्छे नही लगते।' ब्रह्मज्ञानी चक्रवर्ती सम्राट भरतेश्वरको आत्मचिन्तनमे जो रस प्राप्त होता था, वह राजकीय वैभव के द्वारा लेशमात्र भी नहीं प्राप्त होता था। तत्त्वका सम्यक् वोध होनेपर विवेकी जीवकी परिणतिम एक नवीन स्फुरण होता है। विश्वके लोकोत्तर
१ "यथा यथा समायाति संवित्ती तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ॥"-इ० उ० ३७ । २. "प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् संध्यारागारुणा दिशः ।
स मेनेऽईत्पदांभोजरागेणेवानुरञ्जिताः ॥ ११६ ॥ प्रातरुद्यन्तमुद्भूतनैशान्धतमस रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिविम्बममंत्त स. ॥ ११७ ॥" "प्रातरुत्थाय धर्मस्थैः कृतधर्मानुचिन्तनः । ततोऽर्थकामसपत्ति सहामात्यन्यरूपयत् ॥ ४१, १२० ॥"
-महापुराण, जिनसेन "एव धर्मप्रिय सम्राट धर्मस्थानभिनन्दति । मत्वेति निखिलो लोकस्तदा धर्मे रति व्यगत् ॥ ४१, ११०।"