________________
जैनशासन
इष्टोपदेश कहा है- " तत्त्वका निष्कर्ष है - जीव पृथक् है और पुद्गल भी पृथक् है । इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह इसका ही स्पष्टीकरण है।'
३७०
इस कारण आत्मज्ञानी ऋषि कहते है - "जिस उपाय से यह जीव अविद्यामय अवस्थाका परित्याग कर विद्यामय - ज्ञानज्योतिमय स्थितिको प्राप्त कर सके, उसकी ही चर्चा करो, दूसरोसे उसके विषय मे पूछो, उसकी ही कामना करो। इतना ही क्यो इसी विषयमे निमग्न भी हो जाओ ।'
आत्माका स्वरूप वाणीके अगोचर है अत शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे कहते हैं कि आत्माकी उपलब्धिके विषयमे प्रतिपाद्य एव प्रतिपादकपने का अभाव है। आचार्य कहते है - " जो में अन्योके द्वारा शिक्षित किया जाता हू, अथवा जो मैं दूसरोको उपदेश देता है । यथार्थमे यह अज्ञ चेष्टा है, कारण मैं विकल्पातीत वचन अगोचर
स्वभाव वाला हू ।
पूज्यपाद स्वामीकी यह उक्ति बहुत मार्मिक तथा तत्त्वस्पर्शी है-' जो पदार्थ जीवका उपकारी होगा, अर्थात् जिससे आत्माको पोषण प्राप्त होता है, उससे शरीरकी भलाई नही होगी। जिससे शरीर का पोषण या हित होता है, उससे आत्माका हित नही होगा । कारण दोनो के हितोमें परस्पर विरोधीपना है ।'
१ " जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ॥ ५० ॥" २ " तद्द्ब्रूयात् तत्परान् पृच्छेत् तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३ ॥ " - स० तं० । ३ " यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये ।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १६ ॥" - स० तं० । ४ " यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् ।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ।।" इ० उ० १६ ।