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जैनशासन
समान है। विद्यानन्दि सदृग अनेक चिन्तकोने उस स्तोत्रके अनुशीलन के फलस्वरूप जैनगासनको स्वीकार किया। उस ११४ श्लोक प्रमाणस्तोत्रपर तार्किक तपस्वी अकलकदेवने अष्टशती टीका आठ सौ श्लोक प्रमाण बनाई । उसपर आचार्य विद्यानन्दिने आठ हजार श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नामकी विश्वातिशायिनी टीका बनाई। इस रचनाके विषय में स्वय ग्रन्थकार ने लिखा है
"श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानः।
विज्ञायते ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।" 'यथार्थमे सुनने योग्य शास्त्र तो अष्टसहस्री है। उसे सुननेके अनन्तर हजारो शास्त्रोके श्रवणमे क्या सार है? इस एक ग्रन्थके द्वारा ही स्वसमय--अपने सिद्धान्त तथा पर समय-अन्य सिद्धान्तोका अववोध
होता है।'
___भगवद्गीताकी आजके युगमे सुन्दर एव तात्त्विक निरूपणके कारण बहुत प्रशसा सुननेमे आती है, इसी दृष्टि से यदि हम देवागमस्तोत्र पर 'विचार करे, तो निष्पक्ष भावसे हमे बहिनगीताके समान विशेष गौरव ज्येष्ठ बन्धु देवागमस्तोत्रको प्रदान करना न्याय होगा, कारण उसमें विविध दार्शनिक भ्रान्त धारणाओकी दुर्वलताओको प्रकट करते हुए समन्वयका असाधारण और अपूर्व मार्ग उपस्थित किया गया है । जैन आचार्य परपरामे समन्तभद्र स्वामीके पाण्डित्य पर बड़ी श्रद्धा तथा सम्मानकी भावना व्यक्त की गई है। आचार्य वीरनन्दि कहते है
"गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमः कण्ठविभूषणोकृता । न हारयष्टि: परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥" गुणान्वित-डोरायुक्त, निर्मल एव गोल मुक्ताफल सयुक्त, पुण्यामाओके द्वारा कण्ठमे धारण की गई हारयष्टि ही दुर्लभ नहीं है, किन्तु -समन्तभद्रादि आचार्योकी वाणी भी दुर्लभ है, कारण वह भी गुणान्वित
ओज, माधुर्य आदि गुणसम्पन्न है, वह भी निर्मलचरित्र मुक्तात्माओके