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पुण्यानुवन्धी वाङ्मय वर्णनसे युक्त है, महान् मनीन्द्रो आदिने उस सरस वाणीसे अपने कण्ठको अलकृत किया है। इसी प्रकार तामिल रचनाओमे नीलकेशी नामका महान् विचारपूर्ण तथा दार्शनिक गुत्थियोको सुलझाकर अहिंसा तत्त्वज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित करनेवाला काव्य समयदिवाकर वामन मुनिकी टीका सहित राव बहादुर प्रोफेसर श्री ए. चक्रवर्ती एम० ए० मद्रासके द्वारा प्रकाशमें आया है। उसमे भी तुलनात्मक पद्धतिसे सत्यकी उपलब्धिका सुन्दर प्रयत्न किया गया है। श्रीचक्रवर्तीकी ३२० पेजकी भूमिका अग्रेजी में छपी है। इससे तामिलसे अपरिचित व्यक्ति भी उसका रसास्वादन कर सकते है। जीवक-चिन्तामणि, त्रिषष्ठिचरित्र, नन्नूल कनडीकी उज्ज्वल जैन रचनाए मद्रास विश्व विद्यालयने वी ए ,एम ए के पाठ्यक्रममे रखी है।
जैन ग्रन्थकारोने भाषाको भाव प्रकाशन करनेका साधनमात्र माना। इस कारण इन्होने सस्कृत को ही देववाणी-विद्वानोकी भापा-समझ अन्य भापाओके प्रति उपेक्षा नही की, प्रत्युत हर एक सजीव भाषाके माध्यमसे वीतराग जिनेन्द्रदेवकी पवित्र देशनाका जगत्में प्रसार किया। वैदिक पण्डित सस्कृतके सौन्दर्य पर ही मुग्ध थे, किन्तु जैनियोने पुरातन युगमे प्राकृत नामक जनताकी भाषाको अपने उपदेशका अवलम्बन वना अत्यन्त पुष्ट, प्रसन्न तथा गभीर रचनाओ द्वारा उसके भण्डारको अलकृत किया। ___ ईसवीके प्रारभ कालमें पुष्पदन्त, भूतवलि, गुणधर, कुन्दकुन्द, यतिवृषभ आदि मुनीन्द्रोने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओके द्वारा प्राकृतभाषाके मस्तकको अत्यन्त समुन्नत किया है। पुष्पदन्त भतलि कृत खट्खडागमकी ४६००० श्लोक प्रमाण प्राकृत भाषामें सूत्र रचनाके प्रमेयकी अपूर्वता विश्वको चकित करनेवाली है। लगभग ६ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत सूत्रो पर वीरसेनाचार्यने वहत्तर हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका नामका सर्वांग सुन्दर भाष्य रचा। भूतवलि स्वामीका ४० हजार श्लोक प्रमाण महावन्ध अथ विश्व साहित्यकी अनुपम निधि है । गुणधर आचार्यने १८० गाथाओमें कषायप्राभूत.