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जैनशासन
तथा प्रतिभावान् व्यक्तियोकी रचनाका रस, गभीरता और माधुर्य इतर व्यक्तियोकी कृतियोमे कैसे आ सकता है ? ___भगवान् महावीर प्रभुकी दिव्य तथा सर्वागीण सत्यको प्रकाशमे लाने वाली दिव्यध्वनिको अर्थत ग्रहणकर श्रमणोत्तम गौतम गणधरने आचाराग आदि द्वादश अगोकी रचना की, उनका स्वरूप और विस्तार आदिके परिज्ञानार्थ गोम्मटसार जीवकाण्डकी ३४४ से ३६७ गाथा पर्यन्त विवेचनका परिशीलन करना चाहिये। उससे प्रमाणित होता है कि जिनेन्द्रकी वाणीमे महापुरुषोका पुण्य चरित्र, सदाचरणका मार्ग, दार्शनिक चिन्तना तथा इस जगत्के आकार-प्रकार आदिका अनुयोग चतुष्टयके नामसे अत्यन्त विशद वर्णन किया गया है।
यहा यह गका सहज उत्पन्न होती है, कि साधकके लिए उपयोगी आत्मनिर्मलताप्रद आध्यात्मिक साहित्यका ही निर्माण आवश्यक था। अन्य विषयोका विवेचन जैन महर्षियोने किस लिए किया? इसका समाधान यह है कि मनुष्यका मन चचल वन्दर के समान है, जिसे कर्मरूपी विच्छ्ने डंस लिया है और जिसने मोहरूपी तीन मदिरा का पान किया है। वह अधिक समय तक आध्यात्मिक जगत्मे विचरण करने में असमर्थ है , अत वह अमार्गमे स्वच्छद विहार कर अनर्थ उत्पन्न न करे, इस पवित्र उद्देश्यसे अन्य भी विषयोका प्रतिपादन किया गया, जिनमे चित्त लगा रहे और साधक राग, द्वेषसे अपनी मनोवृत्तिको वचावे। जैनशासनके ग्रथोका
अन्तिम लक्ष्य अथवा ध्येय आत्मनिर्मलता तथा विषय-विरक्ति है। • इसीलिये साहित्यकी रचनाओमे लोकरुचिका लक्ष्य करते हुए उसमे
आकर्षणनिमित्त शृगारादि रसोका भी यथास्थान उचित उपयोग किया गया है, किन्तु वहा उस शृगार तथा भोगको जीवनके लिए असार सामग्री वता आत्मज्योतिके प्रकाशम स्वरूपोपलब्धिकी ओर प्रेरणा की गई है, ऐसी स्थितिमे वहा शृगारादि रसोकी मुख्यता नही रहती है। भदन्त