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जैनशासन
आदि आवश्यक है। अहिंसात्मक जीवन शिकार तथा मासभक्षणका मूलोच्छेद किये विना विकसित नहीं होता। अत अहिंसात्मक जैनधर्मकी छत्रछायामे पराक्रम-प्रदीप वरावर प्रकाश प्रदान नही कर सकता। यह जैनधर्मकी अहिंसाका प्रभाव था जो वीरभू भारत पराधीनताके पाशमे ग्रस्त हुआ। एक बडे नेताने भारतके राजनैतिक अध पातका दोष जैनधर्मकी अहिंसाको शिक्षाके ऊपर लादा था। ऐसे प्रमुख पुरुषोकी भान्त धारणाओपर सत्यके आलोकमे विचार करना आवश्यक है। अहिंसात्मक जीवन वीरताका पोषक तथा जीवनदाता है। विना वीरतापूर्ण अंत करण हुए इस जीवके हृदयमे अहिंसाकी ज्योति नही जगती। जिसे हमारे कुछ राजनीतिज्ञोने निंदनीय अहिंमा समझ रखा है यथार्थमे वह कायरता
और मानसिक दुर्वलता है। हस और वकराजके वर्णमे वाह्य धवलता समान रूपसे प्रतिष्ठित रहती है किंतु उनकी चित्तवृत्तिमे महान् अतर है। इसी प्रकार कायरता अथवा भीरतापूर्ण वृत्ति और अहिसामें भिन्नता है। अहिंसाके प्रभावसे आत्मशक्तियोकी जागृति होती है और आत्मा अपने अनत वीर्यको सोचकर विरुद्ध परिस्थितिके आगे अजेय और अभयपूर्ण प्रवृत्ति करनेमे पीछे नहीं हटता। जिस तरह कायरतासे अहिंसावानका वीरतापूर्ण जीवन जुदा है उसी प्रकार क्रूरतासे भी उसकी आत्मा पृथक् है। क्रूरतामे प्रकाश नहीं है। वह अत्यंत अधी और पशुतापूर्ण विचित्र मन स्थितिको उत्पन्न करती है। साधक अपनी आत्मजागृति-निमित्त क्रूरतापूर्ण कृतियोसे बचता है, किंतु वीरताके प्रागणमे वह अभय भावसे विचरण करता है वह तो जानता है'न मे मृत्युः, कुतो भीति'-जब मेरी आत्मा अमर है तब किसका भय किया जाय, डर तो अनात्मजके हृदयमे सदा वास करता है।
क्रूरताकी मुद्रा धारण करनेवाली कथित वीरताके राज्यमे यह जगत् यथार्थ गाति और समृद्धिके दर्शनसे पूर्णतया वचित रहता है । क्रूर सिंहके राज्यमे जीवधारियोका जीवन असभव वन जाता है। उसी प्रकार क्रूरता